रविवार, 14 अप्रैल 2024

भाषा के प्रति अंबेडकर का राष्ट्रीय दृष्टिकोण

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर और उनकी पत्रकारिता

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के लिए भाषा का प्रश्न भी राष्ट्रीय महत्व का था। उनकी मातृभाषा मराठी थी। अपनी मातृभाषा पर उनका जितना अधिकार था, वैसा ही अधिकार अंग्रेजी पर भी था। इसके अलावा बाबा साहेब संस्कृत, हिंदी, पर्शियन, पाली, गुजराती, जर्मन, फारसी और फ्रेंच भाषाओं के भी विद्वान थे। मराठी भाषी होने के बाद भी बाबा साहेब जब राष्ट्रीय भाषा के संबंध में विचार करते थे, तब वे सहज ही हिन्दी और संस्कृत के समर्थन में खड़े हो जाते थे। महाराष्ट्र के अस्पृश्य बंधुओं से संवाद करना था, तब उन्होंने मराठी भाषा में समाचारपत्रों का प्रकाशन किया। जबकि उस समय के ज्यादातर बड़े नेता अपने समाचारपत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित कर रहे थे। बाबा साहेब भी अंग्रेजी में समाचारपत्र प्रकाशित कर सकते थे, अंग्रेजी में उनकी अद्भुत दक्षता थी। परंतु, भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान और अपने लोगों से अपनी भाषा में संवाद करने के विचार ने उन्हें मराठी में समाचारपत्र प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया होगा। यदि बाबा साहेब ने अंग्रेजी में समाचारपत्रों का प्रकाशन किया होता, तब संभव है कि वे वर्षों से ‘मूक’ समाज के ‘नायक’ न बन पाते और न ही उनके हृदय में स्वाभिमान का भाव जगा पाते। वहीं, जब उनके सामने राष्ट्रभाषा का प्रश्न आया, तब उन्होंने अपनी मातृभाषा की ओर नहीं देखा, वे भाषा के प्रश्न पर भावुक नहीं हुए, बल्कि तार्किकता के साथ उन्होंने हिन्दी और संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा।   

संविधान निर्माण के समय जब राष्ट्रभाषा और राज्य व्यवहार की अधिकृत भाषा का विषय आया, तब संविधान सभा में बाबा साहेब ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के प्रस्ताव का समर्थन किया। इस प्रस्ताव के समर्थन में लक्ष्मीकान्त मैत्र, टी. टी. कृष्णमाचारी, डॉ. बालकृष्ण केसकर (तत्कालीन विदेश उपमन्त्री), प्रा. नजीरुद्दीन अहमद, डॉ. अम्बेडकर तथा मद्रास-त्रिपुरा-मणिपुर-कुर्ग प्रान्तों के सदस्य थे। प्रा. नजीरुद्दीन अहमद ने संस्कृत का समर्थन करते हुए इस प्रस्ताव को सदन के पटल पर रखा और कहा कि एक ऐसे देश में जहां ढेरों भाषाएं बोली जाती हैं, वहां यदि एक भाषा को पूरे देश की भाषा बनाना चाहते हैं तो जरूरी है कि वह निष्पक्ष हो। उन्होंने पश्चिमी विद्वानों के उद्धरण देकर भी संस्कृत भाषा की अतुलनीय समृद्धि एवं शुद्धता को भी प्रमाणित किया। संस्कृत प्रा. शाहिदुल्ला ने तो यहाँ तक कहा कि व्यक्ति किसी भी वंश का हो, संस्कृत प्रत्येक की भाषा है। लक्ष्मीकान्त मैत्र ने कहा कि संस्कृत को मान्यता देकर जग को यह बता सकेंगे कि हम अपने प्राचीन वैभव का कितना आदर करते हैं। संस्कृत को स्वीकार कर हम भावी पीढ़ी का उज्ज्वल भविष्य निर्माण कर सकते हैं। परंतु, दुर्भाग्य यह कि डॉ. अम्बेडकर द्वारा संस्कृत भाषा के विषय में सुझाये गये संशोधन को स्वीकार नहीं किया गया। संविधान की आठवीं अनुसूची में उसे मात्र एक भारतीय भाषा का स्थान दिया गया। 

इस सन्दर्भ में एक ओर प्रसंग है। राष्ट्रभाषा पर केन्द्रीय कक्ष में विविध समूहों में चर्चा चल रही थी, तब लोगों को यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि चर्चा के समय डॉ. अम्बेडकर एवं लक्ष्मीकान्त मैत्र आपस में त्रुटिहीन संस्कृत में चर्चा कर रहे थे। डॉ. अम्बेडकर की इच्छा थी कि संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के विषय में शे. का. फेडरेशन के कार्यकारी मण्डल में 10 सितम्बर, 1949 को प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए, परन्तु बी. पी. मौर्य जैसे कुछ तरुण सदस्यों के विरोध के कारण वह सम्भव न हो सका। राष्ट्रभाषा के संबंध में पत्रकारों ने बाबा साहेब से पूछा कि आप संस्कृत का समर्थन क्यों कर रहे हैं? तब उन्होंने कहा- “संस्कृत में क्या दोष है?” 

संस्कृत के अलावा बाबा साहेब ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राज्य के व्यवहार की भाषा बनाने के लिए प्रयास किया। इस संबंध में 2 जून, 1956 को प्रकाशित ‘जनता’ के अंक में उनके विचारों को प्रकाशित किया गया है। बाबा साहेब को चिंता थी कि कहीं भाषा के आधार पर बने राज्य एक-दूसरे के विरुद्ध न खड़े हो जाएं? आधुनिक भारत के निर्माण की जगह कहीं मध्ययुगीन भारत न बन जाए? इस स्थिति से बचने के लिए बाबा साहेब ने हिन्दी को राज्य भाषा बनाने का सुझाव दिया। बाबा साहेब लिखते हैं- “संविधान में यह व्यवस्था रखी जाए कि क्षेत्रीय भाषा किसी भी राज्य की राजभाषा नहीं होगी। राज्य की राजभाषा हिन्दी रहेगी”। भाषा को देश की एकजुटता का साधन बताते हुए बाबा साहेब आगे लिखते हैं- “एक भाषा जनता को एकसूत्र में बांध सकती है। दो भाषाएं निश्चित ही जनता में फूट डाल देंगी। यह एक अटल नियम है। भाषा, संस्कृति की संजीवनी होती है। चूँकि भारतवासी एकता चाहते हैं और एक समान संस्कृति विकसित करने के इच्छुक हैं, इसलिए सभी भारतीयों का यह भारी कर्तव्य है कि वे हिन्दी को अपनी भाषा के रूप में अपनाएं”। 

पुनरुत्थान विद्यापीठ से प्रकाशित लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘डॉ. भीमराव अम्बेडकर : पत्रकारिता एवं विचार’

यह तथ्य आज भी प्रमाणित है कि भारत में भावनात्मक एकता और राष्ट्रीय एकात्मता हिन्दी द्वारा ही संभव है। बाबा साहेब ने तो यहाँ तक कर दिया था कि जो भी भाषा पर मेरे इस प्रस्ताव को नहीं स्वीकार करता, उसे भारतीय कहलाने का अधिकार नहीं। वह शत-प्रतिशत महाराष्ट्रीयन, शत-प्रतिशत तमिल या शत-प्रतिशत गुजराती तो हो सकता है, किंतु वह सही अर्थ में भारतीय नहीं हो सकता, चाहे भौगोलिक अर्थ में भारतीय हो। जब संविधान सभा में राष्ट्रभाषा के लिए हिन्दी का प्रस्ताव आया तो कांग्रेस पार्टी के नेता दो समूहों में बँट गए। एक, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में था वहीं दूसरा समूह हिन्दी का विरोध कर रहा था। भाषा के विषय को लेकर संविधान सभा में सर्वाधिक विमर्श हुआ।

बाबा साहेब भाषा के प्रश्न को केवल भावुकता की दृष्टि से नहीं देखते थे। बल्कि उनके लिए भाषा को देखने का राष्ट्रीय दृष्टिकोण था। संस्कृत हो या फिर हिन्दी, दोनों भाषाओं के प्रति उनकी धारणा थी कि ये भाषाएं भारत को एकसूत्र में बांध कर संगठित रख सकती हैं और किसी भी प्रकार के भाषायी विवाद से बचा सकती हैं।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

लेखक लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ की चर्चा

राष्ट्रीय उद्देश्य और आध्यात्मिक अधिष्ठान पर केंद्रित है छत्रपति शिवाजी महाराज का 'हिन्दवी स्वराज्य' : हेमंत मुक्तिबोध

लेखक लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ की चर्चा कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता श्री हेमंत मुक्तिबोध ने कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ रामदास ने उस समय के हिंदू समाज के भीतर आत्मविश्वास जगाया। याद रखें कि यह सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं था। यह भारत के ‘स्व’ को स्थापित करने के लिए किया गया राष्ट्रीय संघर्ष था। उनके संघर्ष का राष्ट्रीय उद्देश्य था और अध्यात्म उसका अधिष्ठान था। इसलिए उस समय के समाज में विश्वास जगा कि यह राजा साधारण नहीं है। ‘हे हिंदवी स्वराज्य व्हावे, ही तर श्रींची इच्छा यात’ शिवाजी महाराज का यह वाक्य विश्व के महान भाषणों से भी बढ़कर है। पुस्तक चर्चा का यह कार्यक्रम विश्व संवाद केंद्र के मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी सभागार में हुआ। इस अवसर पर साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मध्य भारत प्रांत के संघचालक श्री अशोक पांडेय ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

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हिन्दवी स्वराज्य दर्शन पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है। चित्र पर क्लिक करके पुस्तक खरीदें

श्री मुक्तिबोध ने कहा कि लोकेंद्र सिंह ने इस जीवंतता के साथ पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ को लिखा है कि हम भी पढ़ते–पढ़ते छत्रपति शिवाजी महाराज के दुर्गों का भ्रमण करते हैं। एक–एक प्रसंग और घटना का जीवंत वर्णन उन्होंने किया है। यात्रा वृत्तांत में दर्शन की दृष्टि, मन की आंखों और विवेक–बुद्धि के साथ देखते हैं तो कुछ प्रेरणा देनेवाला और सकारात्मक साहित्य का सृजन होता है। लोकेंद्र सिंह ने शिवाजी महाराज के किलों को केवल सामान्य पर्यटक के तौर पर नहीं देखा है, उन्होंने विवेक बुद्धि के साथ दुर्गों का दर्शन किया हैं। उन्होंने कहा कि किलों का महत्व इतना नहीं है, जितना उनमें रहने वालों का महत्व है। शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना में किलों को जीता, संधि में किले हारे और फिर किलों को प्राप्त करने के लिए संधि तोड़ी। पुस्तक में सिंहगढ़ की कथा भी आती है। जिस किले को प्राप्त करने में तानाजी मालूसरे का बलिदान हुआ। अपने साथी के बलिदान पर छत्रपति ने कहा था– “गढ़ आला लेकिन सिंह गेला”।

शुक्रवार, 29 मार्च 2024

‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ को साकार करने में सफल रहे रणदीप हुड्डा

स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर रणदीप हुड्डा ने बेहतरीन फिल्म बनाई है। सच कहूं तो यह फिल्म से कहीं अधिक है। सिनेमा का पर्दा जब रोशन होता है तो आपको इतिहास के उस हिस्से में ले जाता है, जिसको साजिश के तहत अंधकार में रखा गया। भारत की स्वतंत्रता के लिए हमारे नायकों ने क्या कीमत चुकाई है, यह आपको फिल्म के पहले फ्रेम से लेकर आखिरी फ्रेम तक में दिखेगा। अच्छी बात यह है कि रणदीप हुड्डा ने उन सब प्रश्नों पर भी बेबाकी से बात की है, जिनको लेकर कम्युनिस्ट तानाशाह लेनिन–स्टालिन की औलादें भारत माता के सच्चे सपूत की छवि पर आघात करती हैं। कथित माफीनामे से लेकर 60 रुपए पेंशन तक, प्रत्येक प्रश्न का उत्तर फिल्म में दिया गया है। वीर सावरकर जन्मजात देशभक्त थे। चाफेकर बंधुओं के बलिदान पर किशोरवय में ही वीर सावरकर ने अपनी कुलदेवी अष्टभुजा भवानी के सामने भारत की स्वतंत्रता का संकल्प लिया। अपने संकल्प को साकार करने के लिए किशोरवय में ही ‘मित्र मेला’ जैसा संगठन प्रारंभ किया। क्रांतिकारी संगठन ‘अभिनव भारत’ की नींव रखी। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। अंग्रेजों को उनकी ही भाषा में उत्तर देने के लिए लंदन जाकर वकालत की पढ़ाई की। हालांकि क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेजों ने उन्हें डिग्री नहीं दी। ब्रिटिश शासन के घर ‘लंदन’ में किस प्रकार वीर सावरकर ने अंग्रेजों को चुनौती दी, इसकी झलक भी फिल्म में दिखाई देती है। नि:संदेह, वीर सावरकर के महान व्यक्तित्व के संबंध में फिल्म न्याय करने में सफल हुई है।

गुरुवार, 28 मार्च 2024

छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्थापित किया 'स्वदेशी' का महत्व

 छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती पर विशेष

छत्रपति शिवाजी महाराज समाधि स्थल, रायगड दुर्ग / फोटो- लोकेन्द्र सिंह

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म शिवनेरी दुर्ग में फाल्गुन मास (अमावस्यांत) कृष्ण पक्ष तृतीया को संवत्सर 1551 में हुआ। ग्रेगोरियन कैलेंडर में यह दिनांक 19 फरवरी, 1630 होती है। चूँकि छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन ‘स्व’ की स्थापना को समर्पित रहा, इसलिए सही अर्थों में उनकी जयंती भारतीय पंचाग के अनुसार मनायी जानी चाहिए। स्मरण रहे कि चारों ओर जब पराधीनता का गहन अंधकार छाया था, तब छत्रपति शिवाजी महाराज प्रखर सूर्य की भाँति हिन्दुस्तान के आसमान पर चमके थे। ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना करके उन्होंने वह करके दिखा दिया, जिसकी कल्पना करना भी उस समय कठिन था। शिवाजी महाराज ऐसे नायक हैं, जिन्होंने मुगलों और पुर्तगीज से लेकर अंग्रेजों तक, स्वराज्य के लिए युद्ध किया। भारत के बड़े भू-भाग को आक्रांताओं के चंगुल से मुक्त कराकर, वहाँ ‘स्वराज्य’ का विस्तार किया। जन-जन के मन में ‘स्वराज्य’ का भाव जगाकर शिवाजी महाराज ने समाज को आत्मदैन्य की परिस्थिति से बाहर निकाला। ‘स्वराज्य’ के प्रति समाज को जागृत करने के साथ ही उन्होंने ऐसे राज्य की नींव रखी, जो भारतीय जीवनमूल्यों से ओतप्रोत था। शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की व्यवस्थाएं खड़ी करते समय ‘स्व’ को उनके मूल में रखा। ‘स्व’ पर आधारित व्यवस्थाओं से वास्तविक ‘स्वराज्य’ को स्थापित किया जा सकता है।

सुनिए, छत्रपति शिवाजी महाराज पर बुद्धिजीवियों के विचार

मंगलवार, 19 मार्च 2024

राम मंदिर और संघ : समाज के लिए दृष्टिबोध है प्रतिनिधि सभा का प्रस्ताव

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा का प्रस्ताव- ‘श्रीराममन्दिर से राष्ट्रीय पुनरुत्थान की ओर’ 

भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा से जब समूचा देश अभिभूत है, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने ‘श्रीराममन्दिर से राष्ट्रीय पुनरुत्थान की ओर’ शीर्षक से प्रस्ताव पारित करके समाज के सामने बड़ा लक्ष्य प्रस्तुत किया है। ‘रामराज्य’ की संकल्पना को साकार करने के लिए नागरिकों के जीवन एवं उनके सामाजिक दायित्व में जिस प्रतिबद्धता की आवश्यकता है, उसका आग्रह इस प्रस्ताव में है। श्रीराम के आदर्शों के अनुरूप समरस, सुगठित राष्ट्रजीवन खड़ा करने का जिस प्रकार का सकारात्मक वातावरण बन गया है, उसको पुष्ट करने की प्रेरणा संघ ने नागरिकों को दी है। संघ का मानना है कि श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की घटना भारत के पुनरुत्थान के गौरवशाली अध्याय के प्रारंभ होने का संकेत है। नि:संदेह यही सच है। कहना होगा कि भारत की ‘नियति से भेंट’ अब जाकर हुई है। श्रीरामजन्मभूमि पर श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा से भारत के स्वदेशी समाज में आत्मगौरव की भावना का संचार हुआ है, वह आत्मविस्मृति की स्थिति से बाहर निकला है। सम्पूर्ण समाज हिंदुत्व के भाव से ओतप्रोत होकर अपने ‘स्व’ को जानने तथा उसके आधार पर जीने के लिए तत्पर हो रहा है। समाज में दिख रहा यह परिवर्तन ‘स्व’ की ओर भारत की यात्रा का द्योतक है। यह यात्रा भगवान श्रीराम के आदर्शों के अनुकूल हो, यह जिम्मेदारी भारतीयों की है। भारतीय समाज मंदिर निर्माण को ही अपने संघर्ष का उद्देश्य मानकर संतोष न कर ले, इसलिए संघ ने स्मरण कराया है कि राम मंदिर के पुनर्निर्माण का उद्देश्य तभी सार्थक होगा, जब सम्पूर्ण समाज अपने जीवन में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों को प्रतिष्ठित करने का संकल्प ले। श्रीराम के जीवन मे परिलक्षित त्याग, प्रेम, न्याय, शौर्य, सद्भाव एवं निष्पक्षता आदि धर्म के शाश्वत मूल्यों को आज समाज में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्यक है। सभी प्रकार के परस्पर वैमनस्य और भेदों को समाप्त कर समरसता से युक्त पुरुषार्थी समाज का निर्माण करना ही श्रीराम की वास्तविक आराधना होगी।

गुरुवार, 14 मार्च 2024

सच का सामना करने की है दम तो देखिए- बस्तर : द नक्सल स्टोरी

कम्युनिस्टों की हिंसक एवं क्रूर विचारधारा एवं भारत विरोधी सोच को उजागर करती है सुदीप्तो सेन की फिल्म 

‘द केरल स्टोरी’ के बाद सुदीप्तो सेन ने फिल्म ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ के माध्यम से एक और आतंकवाद को, उसके वास्तविक रूप में, सबके सामने रखने का साहसिक प्रयास किया है। भारत में कम्युनिस्ट, नक्सल और माओवाद (संपूर्ण कम्युनिस्ट परिवार) के खून से सने हाथों एवं चेहरे को छिपाने का प्रयास किया जाता रहा है। लेफ्ट लिबरल का चोला ओढ़कर अकादमिक, साहित्यक, कला-सिनेमा एवं मीडिया क्षेत्र में बैठे अर्बन नक्सलियों ने कहानियां बनाकर हमेशा लाल आतंक का बचाव किया और उसकी क्रांतिकारी छवि प्रस्तुत की। जबकि सच क्या है, यही दिखाने का काम ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ ने किया है। फिल्म संवेदनाओं को जगाने के साथ ही आँखों को भिगो देती हैं। फिल्म जिस दृश्य के साथ शुरू होती है, वह दर्शकों को हिला देता है। जब मैं ‘बस्तर’ की विशेष स्क्रीनिंग देख रहा था, तब मैंने देखा कि अनेक महिलाएं एवं युवक भी पहले ही दृश्य को देखकर रोते हुए सिनेमा हॉल से बाहर निकल गए। जरा सोचिए, हम जिस दृश्य को पर्दे पर देख नहीं पा रहे हैं, उसे एक महिला और उसकी बेटी ने भोगा है। फिल्म में कुछ दृश्य विचलित कर सकते हैं। यदि उन दृश्यों को दिखाया नहीं जाता, तो दर्शक कम्युनिस्टों की हिंसक मानसिकता का अंदाजा नहीं लगा सकते थे। 76 जवानों को जलाकर मारने की घटना का चित्रांकन, कुल्हाड़ी से निर्दोष वनवासियों की हत्या करने के दृश्य, मासूम बच्चों को उठाकर आग में फेंक देने की घटना, यह सब देखने के लिए दम चाहिए। यह फिल्म अधिक से अधिक लोगों को देखनी एवं दिखायी जानी चाहिए। सुदीप्तो सेन को सैल्यूट है कि उन्होंने बेबाकी से लाल आतंक के सच को दिखाया है। हालांकि, कम्युनिस्ट हिंसा की और भी क्रूर कहानियां हैं, जिन्हें दिखाया जाना चाहिए था लेकिन फिल्म में समय की एक मर्यादा है। अपेक्षा है कि सुदीप्तो इस पर एक वेबसीरीज लेकर आएं।

सोमवार, 11 मार्च 2024

मूल्यानुगत मीडिया के आग्रही थे प्रो. कमल दीक्षित

प्रो. कमल दीक्षित की पुस्तक- मूल्यानुगत मीडिया : संभावना एवं चुनौतियां


बाल सुलभ मुस्कान उनके चेहरे पर सदैव खेलती रहती थी। मानो उनका ‘कमल मुख’ निश्छल हँसी का स्थायी घर हो। कई दिनों से माथे पर नाचनेवाला तनाव भी उनसे मिलने भर से न जाने कहाँ छिटक जाता था। उनका सान्निध्य जैसे किसी साधु की संगति। उनके लिए कहा जाता है कि वे पत्रकारिता की चलती-फिरती पाठशाला थे। उनकी पाठशाला में व्यावसायिकता से कहीं बढ़कर मूल्यों की पत्रकारिता के पाठ थे। ‘व्यावहारिकता’ के शोर में जब ‘सिद्धांतों’ को अनसुना करने का सहूलियत भरी राह पकड़ी जा रही हो, तब मूल्यों की बात कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है। मूल्य, सिद्धांत एवं व्यवहार के ये पाठ प्रो. दीक्षित के लिए केवल सैद्धांतिक नहीं थे अपितु उन्होंने इन पाठों को स्वयं जीकर सिद्ध किया था। इसलिए जब वे मूल्यानुगत मीडिया के लिए आग्रह करते थे, तो उसे अनसुना नहीं किया जाता था। इसलिए जब वे पत्रकारिता में मूल्यों की पुनर्स्थापना के प्रयासों की नींव रखते हैं, तो उस पर अंधकार में राह दिखानेवाले ‘दीप स्तम्भ’ के निर्माण की संभावना स्पष्ट दिखाई देती थी।