गुरुवार, 14 सितंबर 2017

नये भारत में वंशवाद को स्थान नहीं

 अमेरिका  के बर्कले विश्वविद्यालय में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने एक ओर प्रधानमंत्री बनने की इच्छा का प्रदर्शन किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने एक बार फिर अपनी अपरिपक्वता को जाहिर किया है। वंशवाद पर राहुल गांधी का बयान बताता है कि उन्हें देश के जनमानस की कतई समझ नहीं है। अब राजा-महाराजाओं का जमाना नहीं है। यह लोकतंत्र है। लोकतंत्र में कोई भी समझदार व्यक्ति वंशवाद का समर्थक नहीं होता। लोकतंत्र और वंशवाद परस्पर विरोधाभासी हैं। नये भारत में तो वंशवाद के लिए किंचित भी स्थान नहीं है। वंशवाद के समर्थन में राहुल गांधी ने जिनके नाम बताए, उन्हें भी समाज की स्वीकृति नहीं है। अखिलेश यादव को उत्तरप्रदेश की जनता ने अस्वीकार कर दिया। अभिषेक बच्चन भी अपने पिता, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के प्रभाव के बाद भी भारतीय सिनेमा में स्थान नहीं बना पाए हैं। 'बच्चन' उपनाम होने के बाद भी अभिषेक को सिनेप्रेमियों ने नकार दिया है। अर्थात् राहुल गांधी के वंशवाद के गुब्बारे की हवा तो खुद ही निकाल ली। उनका स्वयं का उदाहरण भी इस बात को समझने के लिए पर्याप्त है कि देश की जनता वंशवाद के नाम पर हर किसी को सहन करने के लिए तैयार नहीं है।
         कांग्रेस के उपाध्यक्ष को समझना चाहिए कि देश बदल रहा है। अब यह देश वैसे ही नहीं 'चलता' जैसा वह सोच रहे हैं और अमेरिका के विश्वविद्यालय में बैठकर बोल रहे हैं। इसका जवाब उन्हें भारत से मीलों दूर बर्कले विश्वविद्यालय में एक लड़की ने बीच भाषण में टोक कर दिया है। हालाँकि इसे सभ्य तरीका नहीं माना जा सकता कि कोई आमंत्रित वक्ता को बीच में टोके। यदि श्रोता को भाषण अच्छा नहीं लग रहा, तब हो-हल्ला मचाने की जगह, स्वयं ही सभा से उठकर चले जाना चाहिए। 
          बहरहाल, यह युवाओं का देश है। यह देश परिवर्तन की करवट ले रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आजादी की 70वीं सालगिरह पर लालकिले की प्राचीर से कहा था कि देश में 'चलता है' का जमाना चला गया है। 11 सितंबर को शिकागो व्याख्यान दिवस की 125वीं वर्षगाँठ के अवसर पर भी युवाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भारत तब विश्व का नेतृत्व करेगा, जब हम नियमों का पालन करना प्रारंभ कर देंगे। प्रधानमंत्री के दोनों भाषणों का सार यही है कि अब तक जैसा चलता आया है, अब वैसा नहीं चलेगा। यह बात जो समझने की कोशिश करेगा, वही देश को संभाल सकता है। जो यह भरोसा करता हो कि 'भारत तो ऐसे ही चलता है।' तब उस पर देश की जनता भरोसा क्यों करेगी भला? 
         राहुल गांधी का बयान स्पष्टतौर पर बताता है कि उनके पास देश में बदलाव लाने की कोई दृष्टि नहीं है। जो देश की गति को सकारात्मक दिशा नहीं दे सकता, उसको शासन व्यवस्था से दूर ही रहना चाहिए। प्रत्येक नागरिक की दिली-तमन्ना है कि भारत का नवनिर्माण हो। आज कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि देश जैसे चलता आया है, वैसे ही चलता रहे। राहुल गांधी को यह तो समझ आया कि 2012 के बाद कांग्रेस को घंमड हो गया था, इसलिए वह बुरी तरह से हार रहे हैं। लेकिन, इतनी-सी बात क्यों समझ नहीं आ रही कि 'अच्छे दिन आएंगे' नारे के पीछे का संदेश क्या है? इस नारे ने देश की जनता को बड़ा सपना दिखाया था- व्यवस्था बदलाव का। इसलिए लोगों ने 'अच्छे दिन आएंगे' पर भरोसा किया था। लेकिन, आप तो अब भी यही कह रहे हैं कि देश जैसे चलता है, वैसे ही चलेगा। इस प्रकार की सोच और दृष्टि से कांग्रेस 2019 के चुनाव में भाजपा के सामने खड़ी हो पाएगी, यह असंभव दिखता है। 
          दरअसल, कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या वंशवाद की राजनीति है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से ही कांग्रेस में नेहरू परिवार का प्रभाव बढ़ गया था। कांग्रेस कभी भी नेहरू परिवार की छाया से बाहर नहीं निकल सकी है। भले ही कांग्रेस ने दो-तीन प्रधानमंत्री 'गाँधी' उपनाम के न दिए हों। किंतु, उस समय भी पार्टी और सरकार पर नेहरू परिवार का ही रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बरक्स कहीं भी न ठहरने वाले राहुल गांधी को कांग्रेस अपना नेता बनाकर चल रही है तो इसका एकमात्र कारण है, पार्टी में वंशवाद की राजनीति। अपनी राजनीतिक विरासत बचाने के लिए राहुल गांधी ने वंशवाद का समर्थन किया है। जबकि देश का वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य, विशेषकर देश के शीर्ष संवैधानिक पद बताते हैं कि लोकतंत्र वंशवाद से नहीं, बल्कि योग्यता से चलता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक गरीब परिवार में जन्मे हैं। बचपन में चाय बेची है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद वंचित परिवार से आते हैं। उपराष्ट्रपति वेंकेया नायडू किसान परिवार से हैं। राहुल गांधी की तरह यह इनमें से एक भी राजनीतिक विरासत से नहीं आया है, बल्कि संघर्ष से यहाँ पहुँचे हैं। बहरहाल, इन तीन व्यक्तियों का शीर्ष पर होना बताता है कि नये भारत और लोकतंत्र में विरासत/ वंशवाद का नहीं, बल्कि योग्यता का सम्मान है।

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