बुधवार, 19 जुलाई 2017

एक राष्ट्र-एक ध्वज की कल्पना के विरुद्ध है कर्नाटक की कांग्रेस सरकार की मंशा

 कर्नाटक  की कांग्रेस सरकार राज्य के लिए अलग झंडा बनाने की ओर बढ़ रही है। उसने कर्नाटक का ध्वज तय करने के लिए नौ सदस्यों की एक समिति भी गठित कर दी है। यह समिति झंडा का आकल्पन और उसके संवैधानिक पहलुओं की पड़ताल करेगी। फिलहाल तो केंद्र सरकार ने संविधान का हवाला देकर कर्नाटक के एम. सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार की गैरजरूरी माँग को ठुकरा दिया है। राज्य के लिए अलग ध्वज की माँग न केवल बेतुकी है, बल्कि यह अलगाव और विभेद की भावना को उत्पन्न करने वाला अविवेक से भरा कदम भी है। हमने देखा है कि हिंदी भाषा के समानांतर भारतीय भाषाओं की अस्मिता के प्रश्न जब राजनीतिक दृष्टिकोण से उठाए गए, तब भारतीय भाषाओं का आपसी सौहार्द कैसे द्वेष में बदल गया?
          कोई अनजान और राजनीतिक तौर पर अशिक्षित व्यक्ति ही होगा, जो यह न समझ पाए कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार अलग झंडे की माँग पर अड़ क्यों रही है? दरअसल, राज्य में कुछ ही महीने बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में राज्य की कांग्रेस सरकार ने अलग झंडे के बहाने कन्नड़ पहचान का राजनीतिक कार्ड खेला है। राज्य में भाजपा की ओर से कांग्रेस को कड़ी चुनौती मिल रही है। कांग्रेस और मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को कर्नाटक से भी कांग्रेस के जाने का भय सता रहा है। यही कारण है कि सिद्धारमैया कन्नड़ अस्मिता का दांव खेलकर अपनी और कांग्रेस पार्टी की नैया पार लगाना चाहते हैं। 
          जब हम इतिहास के पन्ने पलटते हैं, तब अनेक अध्याय स्वत: ही बोल उठते हैं कि कांग्रेस ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए किस प्रकार राष्ट्र की एकता और अखण्डता को चोट पहुँचाई है। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसी प्रकार की अव्यवहारिक गलती जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में की थी, तब धारा-370 के तहत उन्होंने वहाँ अलग विधान, अलग संविधान और अलग निशान की व्यवस्था कर दी थी। अखण्ड भारत में एक राज्य को इस प्रकार की व्यवस्था के कारण ही अलगाव की समस्या का जन्म होता है। जम्मू-कश्मीर तब से लेकर आज तक अपनी अलग पहचान को भारत की पहचान से ऊपर मानता है। 
          जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1952 में 'एक देश, दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे' नारा देकर एक बड़ा आंदोलन प्रारंभ किया था। एक देश में एक विधान, एक प्रधान और एक निशान (ध्वज) के लिए आंदोलन चलाने वाली विचारधारा (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) और जनसंघ (आज भाजपा) को राष्ट्रीय ध्वज के संदर्भ में कठघरे में खड़ा करने वाली कांग्रेस का 'तिरंगा' प्रेम भी इस प्रकरण से उजागर होता दिख रहा है। 'संघ अपने मुख्यालय और कार्यालयों पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा क्यों नहीं फहराता है?' अकसर यह सवाल पूछने वाली कांग्रेस ने आखिर क्या सोचकर एक राज्य के लिए अलग ध्वज की न केवल माँग रखी है, बल्कि उस ओर कदम भी बढ़ा दिए हैं? क्या देश की जनता को यह मानना चाहिए कि सत्ता प्राप्ति के लिए कांग्रेस की नजर में तिरंगे का सम्मान कुछ नहीं? हमें विचार करना चाहिए कि कर्नाटक राज्य के लिए अलग झंडे की माँग राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति अवमानना का प्रकरण नहीं है? क्षुद्र राजनीति से प्रेरित कांग्रेस सरकार की अविवेकपूर्ण माँग को केंद्र सरकार ने खारिज करते वक्त उचित ही कहा कि संविधान में है 'एक देश, एक झंडा' का सिद्धांत है। 
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2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’देश के प्रथम नागरिक संग ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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