रविवार, 31 जुलाई 2016

प्रेमचंद को याद करें साहित्यकार

 दुनिया  के महान साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचंद को स्थान दिया जाता है। भारत में उन्हें 'कलम के सिपाही' के नाम से भी याद किया जाता है। जिस तरह उनकी रचनाएं कालजयी हैं और आज भी प्रेरणा देने वाली हैं, उसी तरह मुंशी प्रेमचंद का जीवन भी कालजयी है, उनका व्यक्तित्व साहित्यकारों का पथप्रदर्शन करता है। प्रेमचंद और उनकी रचनाएं सदैव प्रासंगिक रहने वाली हैं। गांव, गरीब और आम समाज की कहानियां रचने वाले महान साहित्यकार प्रेमचंद का आज 136वां जन्मदिन है। 1880 में उत्तरप्रदेश के लमही गांव में जन्मे प्रेमचंद की कलम से आज के कलमकारों को सीख लेनी चाहिए कि आखिर कलम चलाने का उद्देश्य क्या हो? समाज में दो तरह का लेखन किया जा रहा है- प्रगतिशील लेखन और आदर्शवादी लेखन। प्रगतिशील लेखन में यथार्थ लेखन पर जोर रहता है। लेकिन, इस तरह के लेखक समाज का यथार्थ लिखते समय लेखन की मर्यादाओं को तोड़ देते हैं। समाज की बुराइयों को अपने लेखन में इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि मानो समूचा समाज ही मूल्यहीन हो गया है। सब ओर व्याभिचार और भ्रष्टाचार पसर गया है। जबकि ऐसा नहीं है। आज भी भारत में सामाजिक जीवनमूल्यों का महत्त्व है और यह हमेशा रहने वाला है।

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

गांधी हत्या और आरएसएस

 राजनेताओं  को यह समझना होगा कि अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए किसी व्यक्ति या संस्था पर झूठे आरोप लगाना उचित परंपरा नहीं है। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी शायद यह भूल गए थे कि अब वह दौर नहीं रहा, जब नेता प्रोपोगंडा करके किसी को बदनाम कर देते थे। आज पारदर्शी जमाना है। आप किसी पर आरोप लगाएंगे तो उधर से सबूत मांगा जाएगा। बिना सबूत के किसी पर आरोप लगाना भारी पड़ सकता है। भले ही कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इस मामले पर माफी माँगने से इनकार करके मुकदमे का सामना करने के लिए तैयार दिखाई देते हैं लेकिन, कहीं न कहीं उन्हें यह अहसास हो रहा होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर महात्मा गांधी की हत्या का अनर्गल आरोप लगाकर उन्होंने गलती की है। इसका सबूत यह भी है कि वह अदालत गए ही इसलिए थे ताकि यह प्रकरण खारिज हो जाए। गौरतलब है कि गांधी हत्या का आरोप संघ पर लगाने के मामले में कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सीताराम केसरी को भी माफी का रास्ता चुनना पड़ा था। प्रसिद्ध स्तम्भकार एजी नूरानी को भी द स्टैटसमैन अखबार के लेख के लिए माफी मांगनी पड़ी थी। बहरहाल, वर्ष 2014 में ठाणे जिले के सोनाले में आयोजित चुनावी सभा में संघ को गांधी का हत्यारा बताने पर राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि के मामले की सुनवाई कर रहे उच्चतम न्यायालय ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा है कि राहुल गांधी इस मामले में माफी माँगे या फिर मुकदमे का सामना करें। उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी के भाषण पर सवाल उठाए और आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि 'उन्होंने गलत ऐतिहासिक तथ्य का उद्धरण लेकर भाषण क्यों दिया? राहुल गांधी को इस तरह एक संगठन की सार्वजनिक रूप से निंदा नहीं करनी चाहिए थी।' हमें गौर करना होगा कि कांग्रेस का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति विरोध और द्वेष प्रारंभ से ही है। वैचारिक विरोध और द्वेष के कारण ही कांग्रेस का एक धड़ा अनेक अवसर पर संघ को बदनाम करने का प्रयास करता रहा है। 
  पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक संघ के प्रति वही संकीर्ण नजरिया और द्वेष कायम है। साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव रखने के कारण जवाहरलाल नेहरू संघ का विरोध करते थे। वह किसी भी प्रकार संघ को दबाना चाहते थे। वर्ष 1948 में जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की, तब संघ को बदनाम करने और उसे खत्म करने का मौका प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मिल गया। 'नाथूराम गोडसे संघ का स्वयंसेवक है और गांधीजी की हत्या का षड्यंत्र आरएसएस ने रचा है।' यह आरोप लगवाकर कांग्रेसनीत तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर न केवल प्रतिबंध लगाया, बल्कि देशभर में उससे संबंद्ध नागरिकों को जेल में ठूंस दिया। परंतु, साँच को आँच क्या? तमाम षड्यंत्र के बाद भी सरकार गांधीजी की हत्या में संघ की किसी भी प्रकार की भूमिका को साबित नहीं कर सकी। संघ अग्नि परीक्षा में निर्दोष साबित हुआ। नतीजा, सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा। क्या राहुल गांधी और संघ विरोधी बता सकते हैं कि जब संघ ने महात्मा गांधी की हत्या की थी, तब कांग्रेस ने ही उससे प्रतिबंध क्यों हटाया? राहुल गांधी संभवत: अब भी यह नहीं समझ पाए हैं कि गांधीजी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी, संघ ने नहीं। उन्हें इसके लिए उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी पर ध्यान देना होगा। न्यायालय ने कहा है कि गोडसे ने गांधी को मारा और संघ या संघ के लोगों ने गांधी को मारा, दोनों कथनों में बहुत बड़ा अंतर है। बहरहाल, नाथूराम गोडसे और संघ के संबंध में स्वयं गोडसे ने अदालत में कहा था कि वह किसी समय संघ की शाखा जाता था लेकिन बाद में उसने संघ छोड़ दिया। बहरहाल, यदि यह माना जाए कि एक समय गोडसे संघ का स्वयंसेवक था, इसलिए संघ गांधी हत्या के लिए जिम्मेदार है। तब यह भी बताना उचित होगा कि एक समय नाथूराम गोडसे कांग्रेस का पदाधिकारी रह चुका था। लेकिन, संघ विरोधियों ने नाथूराम गोडसे और कांग्रेस के संबंध को कभी भी प्रचारित नहीं किया। इससे स्पष्ट होता है कि आज की तरह उस समय का तथाकथित बौद्धिक नेतृत्व, वामपंथी लेखक/इतिहासकार और कांग्रेस का नेतृत्व ऐन केन प्रकारेण संघ को कुचलना चाहता था। यह सच है कि एक समय में नाथूराम गोडसे संघ की गतिविधियों में शामिल रहा। लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि वह संघ की विचारधारा के साथ संतुलन नहीं बैठा सका। संभवत: वह संघ को कट्टर हिन्दूवादी संगठन समझकर उससे जुड़ा था। लेकिन, बाद में जब आरएसएस के संबंध में गोडसे की छवि ध्वस्त हुई, तब गोडसे न केवल संघ से अलग हुआ बल्कि एक हद तक संघ का मुखर विरोधी भी बन गया था। उनके समाचार पत्र 'हिन्दू राष्ट्र' में संघ विरोधी आलेख प्रकाशित होते थे। गोडसे ने संघ की आलोचना करते हुए सावरकर को पत्र भी लिखा था। इस पत्र में उसने लिखा कि संघ हिन्दू युवाओं की ऊर्जा को बर्बाद कर रहा है, इससे कोई आशा नहीं की जा सकती। स्पष्ट है कि गोडसे संघ समर्थक नहीं, बल्कि संघ विरोधी था। गांधी हत्या की जांच के लिए गठित कपूर आयोग को दी अपनी गवाही में आरएन बनर्जी ने भी इस सत्य को उद्घाटित किया था। बनर्जी की की गवाही इस मामले में बहुत महत्त्वपूर्ण थी। क्योंकि, गांधीजी की हत्या के समय आरएन बनर्जी केन्द्रीय गृह सचिव थे। बनर्जी ने अपने बयान में कहा था कि यह साबित नहीं हुआ है कि वे (अपराधीगण) संघ के सदस्य थे। वे तो संघ की गतिविधियों से संतुष्ट नहीं थे। संघ के खेलकूद, शारीरिक व्यायाम आदि को वे व्यर्थ मानते थे। वे अधिक उग्र और हिंसक गतिविधियों में विश्वास रखते थे। (कपूर आयोग रिपोर्ट खंड 1 पृष्ठ 164)
   राजनीतिक और वैचारिक षड्यंत्र के तहत ही गांधी हत्या के मामले में आरएसएस को घसीटा गया था। गांधी हत्या की प्राथमिकी (एफआईआर) तुगलक रोड थाने में दर्ज कराई गई है। इस प्राथमिकी (एफआईआर-68, दिनांक- 30 जनवरी, 1948, समय - सायंकाल 5:45 बजे ) में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कहीं कोई जिक्र नहीं है। लेकिन, गांधीजी की हत्या के बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषणों में गांधी हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दोष देना शुरू कर दिया। इस बात से जाहिर होता है कि पंडित नेहरू आरएसएस के संबंध में पूर्वाग्रह से ग्रसित थे और उन्हें तत्कालीन वामपंथी विचारकों/नेताओं द्वारा लगातर संघ के प्रति भड़काया जा रहा था। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के भड़काऊ भाषणों से देशभर में कांग्रेस के लोग संघ से संबंध रखने वाले लोगों को प्रताडि़त करने लगे थे। संघ कार्यालयों पर पथराव हुआ, तोडफ़ोड़ हुई और कई जगह आगजनी भी की गई। लेकिन, संघ के अनुशासित स्वयंसेवकों ने कोई प्रतिकार नहीं किया। कांग्रेस की हिंसा का शांति से सामना कर उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि संघ अंहिसक संगठन है। बहरहाल, गांधी हत्या में आरएसएस की भूमिका की पड़ताल करने के लिए तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल की निगरानी में देशभर में अनेक गिरफ्तारियां, छापेमारी और गवाहियां हुईं। इनसे धीरे-धीरे यह स्पष्ट होने लगा कि गांधी हत्या का संघ से कोई वास्ता नहीं है। संघ पर जघन्य आरोप साबित नहीं होते देख पंडित जवाहरलाल नेहरू कुछ विचलित हुए और उन्होंने जाँच पर असंतोष जाहिर करते हुए सरदार पटेल को पत्र लिखा। उन्होंने अपने पत्र में आरोप लगाया कि दिल्ली की पुलिस और अधिकारियों की संघ के प्रति सहानुभूति है। इस कारण संघ के लोग पकड़े नहीं जा रहे। उसके कई प्रमुख नेता खुले घूम रहे हैं। उन्होंने यह भी लिखा कि देशभर से जानकारियां मिली हैं और मिल रही हैं कि गांधीजी की हत्या संघ के व्यापक षड्यंत्र के कारण हुई है, परंतु उन सूचनाओं की ठीक प्रकार से जांच नहीं हो रही। जबकि यह पक्की बात है कि षड्यंत्र संघ ने ही रचा था। आदि-आदि। सरदार पटेल ने इस पत्र का क्या जवाब दिया वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि कुछ लोग सरदार पटेल को भी गलत अर्थों में उद्धृत करते हैं। संघ विरोधी सरदार पटेल की तत्कालीन प्रतिक्रियाओं को तो लिखते हैं, जिनमें उन्होंने भी यह माना कि गांधी हत्या में संघ की भूमिका हो सकती है। लेकिन, जाँच के बाद सरदार पटेल की क्या धारणा बनी, यह नहीं बताते। खैर, पंडित नेहरू की जिज्ञासा को शांत करने के लिए सरदार पटेल पत्र (27 फरवरी, 1948) में लिखते हैं कि गांधी जी की हत्या के सम्बन्ध में चल रही कार्यवाही से मैं पूरी तरह अवगत रहता हूं। सभी अभियुक्त पकड़े गए हैं तथा उन्होंने अपनी गतिविधियों के सम्बन्ध में लम्बे-लम्बे बयान दिए हैं। उनके बयानों से स्पष्ट है कि यह षड्यंत्र दिल्ली में नहीं रचा गया। वहां का कोई भी व्यक्ति षड्यंत्र में शामिल नहीं है। षड्यंत्र के केन्द्र बम्बई, पूना, अहमदनगर तथा ग्वालियर रहे हैं। यह बात भी असंदिग्ध रूप से उभर कर सामने आयी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इससे कतई सम्बद्ध नहीं है। यह षड्यंत्र हिन्दू सभा के एक कट्टरपंथी समूह ने रचा था। यह भी स्पष्ट हो गया है कि मात्र 10 लोगों द्वारा रचा गया यह षड्यंत्र था और उन्होंने ही इसे पूरा किया। इनमें से दो को छोड़ सब पकड़े जा चुके हैं। इस पत्र व्यवहार से भी स्पष्ट है कि कांग्रेस का एक धड़ा लगातार पंडित नेहरू को संघ के विरोध में गलत सूचनाएं उपलब्ध करा रहा था। लेकिन, वास्तविकता धीरे-धीरे स्पष्ट होती जा रही थी। 
  महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित संवेदनशील मामले को सुनवाई के लिए न्यायमूर्ति आत्मा चरण की विशेष अदालत को सौंपा गया। प्रकरण की सुनवाई के लिए 4 मई, 1948 को विशेष न्यायालय का गठन हुआ। 27 मई से मामले की सुनवाई शुरू हुई। सुनवाई लालकिले के सभागृह में शुरू हुई। यह खुली अदालत थी। सभागृह खचाखच भरा रहता था। 24 जून से 6 नवंबर तक गवाहियां चलीं। 01 से 30 दिसंबर तक बहस हुई और 10 जनवरी 49 को फैसला सुना दिया गया। सुनवाई के दौरान न्यायालय ने 149 गवाहों के बयान 326 पृष्ठों में दर्ज हुए। आठों अभियुक्तों ने लम्बे-लम्बे बयान दिए, जो 323 पृष्ठों में दर्ज हुए। 632 दस्तावेजी सबूत और 72 वस्तुगत साक्ष्य पेश किए गए। इन सबकी जांच की गयी। न्यायाधीश महोदय ने अपना निर्णय 110 पृष्ठों में लिखा। नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। शेष पाँच को आजन्म कारावास की सजा हुई। इस मामले में कांग्रेस और वामपंथियों ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी विनायक दामोदर सावरकर को भी फंसाने का प्रयास किया था। लेकिन, उनका यह षड्यंत्र भी असफल रहा। न्यायालय से सावरकर को निर्दोष बरी किया गया। इसी फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर यह कहा कि महात्मा गांधी की हत्या से संघ का कोई लेना-देना नहीं है। स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन, नहीं। न्यायालय के निर्णय से कांग्रेस और वामपंथी नेता संतुष्ट नहीं हुए। संघ विरोधी लगातार न्यायालय के प्रति असम्मान प्रदर्शित करते हुए गांधी हत्या के लिए संघ को बदनाम करते रहे। बाद में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दबाव या भरोसे में लेकर इस मामले को फिर से उखाड़ा गया। वर्ष 1965-66 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गांधी हत्या का सच सामने लाने के लिए न्यायमूर्ति जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में कपूर आयोग का गठन किया। दरअसल, इस आयोग के गठन का उद्देश्य गांधी हत्या का सच सामने लाना नहीं था, अपितु संघ विरोधी एक बार फिर आरएसएस को फंसाने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन, इस बार भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी। कपूर आयोग ने तकरीबन चार साल में 101 साक्ष्यों के बयान दर्ज किए तथा 407 दस्तावेजी सबूतों की छानबीन कर 1969 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। आयोग अपनी रिपोर्ट में असंदिग्ध घोषणा करता है कि महात्मा गांधी की जघन्य हत्या के लिए संघ को किसी प्रकार जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। (रिपोर्ट खंड 2 पृष्ठ 76)  
  न्यायालय और आयोग के स्पष्ट निर्णयों के बाद भी आज तक संघ विरोधी गांधी हत्या के मामले में संघ को बदनाम करने से बाज नहीं आते। इस प्रकरण से यह भी स्पष्ट होता है कि संघ विरोधियों का भारतीय न्याय व्यवस्था, संविधान और इतिहास के प्रति क्या दृष्टिकोण है? जब यह मामला शीर्ष न्यायालय में पहुंच गया है तब न्यायालय को यह भी ध्यान देना चाहिए कि गांधी हत्या के लिए बार-बार संघ को जिम्मेदार बताने से न केवल एक संगठन पर कीचड़ उछाली जाती है, वरन भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति भी अविश्वास का वातावरण बनाया जाता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद भी संघ को गांधी हत्या के लिए आज तक जिम्मेदार बताना, न्यायपालिका के प्रति असम्मान प्रकट करता है। न्यायालय को इस संबंध में भी संज्ञान लेना चाहिए। बहरहाल, हमें इस सच को स्वीकार करना होगा कि गांधी हत्या में संघ को बार-बार इसलिए घसीटा जाता है ताकि सत्ताधीश और वामपंथी विचारक अपने निहित स्वार्थ पूरे कर सकें। संघ विरोधियों ने अब तक गांधी हत्या प्रकरण को राजनीतिक दुधारू गाय समझ रखा था। लेकिन, उन्हें यह समझना चाहिए कि अब प्रोपेगंडा राजनीति का दौर बीत चुका है।  

दलित उत्पीडऩ : संवेदना कम, दिखावा और सियासत ज्यादा

 दलित  उत्पीडऩ की घटनाएं यकीनन मानव समाज के माथे पर कलंक हैं। देश के किसी भी कोने में होने वाली दलित उत्पीडऩ की घटना सबके लिए चिंता का विषय होनी चाहिए। जिस वक्त मानव सभ्यता अपने उत्कर्ष की ओर अपने कदम बढ़ा रही है, उस समय दलित उत्पीडऩ की घटनाएं पतन का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। मनुष्य-मनुष्य में भेद के इस अपराध से यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि आखिर हम कब जाति की बेडिय़ां तोड़ेंगे? कब मनुष्य को मनुष्य के तौर पर देखेंगे? सामाजिक समरसता के लिए जरूरी है कि इस तरह की घटनाओं पर कानून के हिसाब से कठोर से कठोर कार्रवाई हो, इस बात की चिंता सरकारों को करनी चाहिए। वहीं, इस संदर्भ में समाज की भी अपनी जिम्मेदारी है। बहरहाल, संसद भी दलित उत्पीडऩ पर चिंतित है, यह अच्छी बात है। भारतीय लोकतंत्र के मंदिर से यदि सामाजिक समरसता का रास्ता निकलता है, तब वह अधिक प्रभावी भी होगा। क्योंकि, हम जानते हैं कि सामाजिक समरसता में सबसे बड़ी बाधा कोई है तो वह राजनीति है, राजनीतिक पार्टियां हैं, उनके राजनीतिक स्वार्थ हैं। इसलिए यहाँ प्रश्न उठता है कि दलित उत्पीडऩ पर संसद में हो रही चिंता सामाजिक समरसता के लिए है, या फिर दलित विमर्श की आड़ में राजनीति खेली जा रही है?

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

आतंकवाद पर एकसाथ आएं सभी दल

 जम्मू-कश्मीर  में आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी और उसके साथियों की मौत पर जिस तरह से हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं, वह कोई अनोखी बात नहीं हैं। जब-जब सुरक्षा बल किसी आतंकवादी को मार गिराते हैं, तब-तब जम्मू-कश्मीर की सड़कों पर उग्र प्रदर्शन होता ही है। पाकिस्तान और आतंकवादी संगठनों के इशारे पर भारत विरोधी नारे लगाए जाते हैं और सेना पर पत्थर भी बरसाए जाते हैं। इस बात में कोई शक नहीं है कि आतंकी बुरहान वानी की मौत पर घाटी में जिस प्रकार के हालात हैं, वह चिंता का विषय हैं। लेकिन, देश के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और कुछेक राजनीतिक दलों की ओर से जिस तरह की बयानबाजी सामने आ रही है, वह घाटी के हालात से कहीं अधिक चिंताजनक है। यह बयानबाजी इसलिए भी अधिक हो रही है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी गठबंधन की सरकार है। भाजपा की पहचान राष्ट्रवाद है। भाजपा के वैचारिक विरोधी सवाल उठा रहे हैं कि अब भाजपा का राष्ट्रवाद कहाँ गया? प्रदेश सत्ता में भाजपा के शामिल होने के बाद भी जम्मू-कश्मीर क्यों जल रहा है? बहरहाल, क्षेत्रीय राजनीतिक दलों, राष्ट्रीय दलों और राष्ट्रवाद के वैचारिक विरोधी बुद्धिवादियों को समझना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के हालात राष्ट्रीय चिंता का विषय है, आपसी राजनीति का नहीं। राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए चूल्हे-चौके और भी हैं। इसलिए सबको दलगत राजनीति और वैचारिक असहिष्णुता से ऊपर उठकर जम्मू-कश्मीर के हालात पर टिप्पणी करनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद पूरी तरह खत्म तभी हो सकता है, जब सब अपने-अपने स्वार्थ त्याग कर साथ आएंगे। आतंकवाद और जम्मू-कश्मीर के विषय पर कांग्रेस की ओर से आया मंतव्य सराहनीय है। इस विषय पर कांग्रेस ने इस बार अपेक्षाकृत परिपक्व राजनीति का प्रदर्शन किया है। बाकि क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस से सीख लेनी चाहिए।

सोमवार, 11 जुलाई 2016

आतंकी से सहानुभूति क्यों?

 आतंकवादी  संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के 22 वर्षीय कमांडर बुरहान वानी की मौत पर जम्मू-कश्मीर में मातम ही नहीं मनाया जा रहा है, बल्कि उपद्रव भी किया जा रहा है। सेना और पुलिस को निशाना बनाकर हमले किए जा रहे हैं। इस उपद्रव में अब तक करीब 20 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि सैकड़ों लोग घायल हो गए हैं। बुरहान वानी खतरनाक आतंकवादी था। उसके सिर पर दस लाख का इनाम था। बुरहान वानी भी इस्लामिक उपदेशक डॉ. जाकिर नाइक से प्रेरित था। उसकी मौत से हिजबुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठन को बहुत बड़ा नुकसान होगा। दरअसल, वानी हिजबुल मुजाहिदीन के पोस्टर बॉय के रूप में स्थापित हो चुका था। खुद को आगे रखकर वह आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के लिए घाटी के मुस्लिम युवाओं की भर्ती करता था। उसकी मौत से आतंकवादी तैयार होने की यह प्रक्रिया टूटेगी। इसलिए वानी की मौत को पुलिस, सेना और सरकार आतंकवाद के खिलाफ बड़ी कामयाबी मान रही है।

रविवार, 10 जुलाई 2016

जहरीली तकरीरों पर लगे अंकुश

 ढाका  हमले में निर्दोष विदेशी और गैर-मुस्लिम नागरिकों का गला रेतकर हत्या करने वाले आतंकवादियों के प्रेरणास्रोत साबित हो रहे इस्लाम के उपदेशक डॉ. जाकिर नाईक पहली बार अपनी जहरीली तकरीरों के लिए चौतरफा घिर रहे हैं। बांग्लादेश की जाँच एजेंसियों को इस बात के सबूत मिले हैं कि राजनयिक क्षेत्र में होली आर्टिसन बेकरी रेस्तरां पर हमला करने वाले आतंकियों ने इस्लाम की व्याख्या करने वाले जाकिर नाईक की तकरीर सुनकर आतंकी बनने का फैसला किया था। बांग्लादेश सरकार के आग्रह पर ही केन्द्र सरकार डॉ. नाईक के भाषणों की जाँच करा रही है। महाराष्ट्र सरकार ने भी जाकिर नाईक की जहरीली तकरीरों की जाँच कराने के निर्देश दिए हैं। अपने पड़ोसी मुल्क में हुई बीभत्स घटना की जाँच में मदद करने से आपसी संबंध भी प्रगाढ़ होते हैं। आतंकवाद के खिलाफ साझी लड़ाई में दोनों देशों का साथ आना जरूरी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी वैश्विक मंचों से बार-बार आग्रह कर रहे हैं कि आतंकवाद को खत्म करने के लिए सबको साथ आना चाहिए। अकेले-अकेले लड़कर आतंकवाद का समूल नाश नहीं किया जा सकता। आतंकवाद के विरुद्ध दोनों देशों का साथ आना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि जिस तरह आतंकवाद बांग्लादेश में अपनी आमद दर्ज करा रहा है, वह भारत के लिए भी खतरनाक है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि यदि जाकिर नाईक के भाषण मुसलमानों को आतंकवादी बनने के लिए प्रेरित करने वाले पाए तब उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

आतंकवाद और इस्लाम में संबंध क्या है

ढाका हमले में आतंकियों का शिकार बनी भारत की बेटी तारुषी जैन.
 बांग्लादेश  की राजधानी ढाका के प्रतिष्ठित और सुरक्षित क्षेत्र में आतंकी हमले के बाद आतंकवाद और इस्लाम के संबंधों पर फिर से बहस शुरू हो गई है। महत्त्वपूर्ण बात है कि इस बहस में तीखे सवाल स्वयं मुस्लिम ही पूछ रहे हैं। इसलिए इस बहस को गैर मुस्लिमों द्वारा इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करने के लिए चलाई गई बहस के रूप में नहीं देखना चाहिए। बल्कि यह बहस इस्लाम और मुसलमानों के लिए आत्म विश्लेषण का जरिया बननी चाहिए। हालाँकि, आतंकवाद और इस्लाम के संबंध पर सबसे पहली आवाज भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती ने तब उठाई जब आतंकियों ने पंपोर में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के आठ जवानों की हत्या की थी। मुख्यमंत्री मुफ्ती ने कहा था कि मुस्लिम होने के नाते मैं बेहद शर्मिंदा हूं कि पवित्र माह रमजान में आतंकियों ने यह हमला किया है। आतंकियों के इस हमले से जम्मू-कश्मीर ही नहीं, बल्कि इस्लाम और मुसलमान भी बदनाम हुए हैं।

भारत के नजदीक आया इस्लामिक आतंकवाद

 बांग्लादेश  की राजधानी ढाका के डिप्लोमैटिक जोन के होली आर्टीजन बेकरी रेस्तरां में आतंकी हमले ने दुनिया को दहला दिया है। यह हमला बांग्लादेश की अनदेखी का नतीजा है। पिछले कुछ समय से जिस तरह बांग्लादेश में आतंकियों द्वारा उदारवादी लेखकों, ब्लॉगरों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और हिन्दुओं की सुनियोजित तरीके से हत्या की जा रही थी, उससे बांग्लादेश की सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा था। ज्यादतर हत्याओं की जिम्मेदारी आईएस जैसे खतरनाक आतंकी संगठन ने ली थी, लेकिन प्रधानमंत्री शेख हसीना बार-बार खारिज करती रहीं कि उनके देश में आईएस की उपस्थिति नहीं है। जबकि हकीकत उसके उलट थी। हकीकत से नजरें चुराने के कारण ही आईएस के आतंकी ढाका के सबसे संवेदनशील और सुरक्षित क्षेत्र गुलशन डिप्लोमैटिक जोन से यह संदेश देने में सफल रहे कि बांग्लादेश में उनकी सशक्त मौजूदगी है। इस आतंकी हमले की तुलना भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई में होटल ताज में हुए २६/११ से की जा रही है। गौरतलब है कि ढाका हमले में मरने वालों में लगभग सभी विदेशी नागरिक हैं। आतंकियों की बर्बरता का शिकार होने वालों में एक भारतीय युवती तारुषी भी शामिल है। 

शनिवार, 2 जुलाई 2016

कट्टरपंथियों के निशाने पर हिन्दू

 बांग्लादेश  में इस्लामिक कट्टरपंथी हावी हो गए हैं। शेख हसीना सरकार भले ही दावा करे कि बांग्लादेश में इस्लामिक स्टेट और अन्य इस्लामिक आतंकी संगठनों का वजूद नहीं है लेकिन लगातार निर्दोष लोगों की हत्याएं कुछ और ही कहानी बयां करती है। बांग्लादेश में उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष सोच वाले लेखकों-ब्लॉगरों, शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को सुनियोजित हमले करके मौत के घाट उतारा जा रहा है। इनमें से अधिकतर हत्याओं की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है। इस्लाम का झंडा थामकर चलने वाले आतंकवादियों के निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक भी हैं, खासकर हिन्दू समुदाय। वैसे तो पाकिस्तान के साथ-साथ बांग्लादेश के इतिहास के पन्ने हिन्दुओं के रक्त से लाल हैं। लेकिन, पिछले कुछ समय में जिस तरह बांग्लादेश में हिन्दुओं को निशाना बनाया जा रहा है, उससे भविष्य के खतरे स्पष्ट नजर आ रहे हैं। एक के बाद एक हत्या किसी गहरे सांप्रदायिक षड्यंत्र की ओर इशारा कर रही हैं। मानो, बांग्लादेश की भूमि को हिन्दू विहीन करने की तैयारी इस्लामिक ताकतों ने कर ली है। वर्तमान सरकार को कथिततौर पर पंथनिरपेक्ष माना जाता है। लेकिन, इस्लामिक कट्टरपंथ पर जिस तरह से प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी सरकार ने आँखें बंद कर रखीं हैं, उसे देखकर लगता है कि उन्हें भी अपनी राजनीतिक रोटियों की फिक्र अधिक है। अल्पसंख्यकों पर हो रहे लगातार हमलों पर जिस तरह सरकार मूकदर्शक बन गई है, उससे लगता है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक खासकर हिन्दू समुदाय बचेगा ही नहीं। बांग्लादेश सरकार को समझना चाहिए कि इस तरह की घटनाओं पर चुप्पी उसके लिए भी घातक हो सकती है। अतिवादी ताकतें जब अपनी जड़ें गहरी जमा लेती हैं तब वह सबके लिए नासूर बन जाती हैं और उस स्थिति में उनसे निपटना अधिक मुश्किल हो जाता है। बांग्लादेश आज उस जगह खड़ा है, जहाँ वह संभला नहीं तो उसकी बुरी गत हो जाएगी। प्रधानमंत्री शेख हसीना यह नहीं भूलें कि इस्लामिक आतंकवाद बांग्लादेश के इतिहास और वर्तमान को भी पूरी तरह निगल जाएगा। इस बात को समझने के लिए उन्हें इस्लामिक स्टेट की गतिविधियों का अध्ययन कर लेना चाहिए। हाल की कई घटनाएं बताती हैं कि बांग्लादेश में आज जिस तरह हिन्दुओं की हत्याएं हो रही है, वह दिन भी दूर नहीं है जब इसी तरह मुसलमानों की हत्याएं होना शुरू हो जाएंगी।