शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

साहित्यकारों की चयनित नैतिकता

 अं ग्रेजी लेखिका नयनतारा सहगल और हिन्दी कवि अशोक वाजपेयी साहित्य अकादमी की ओर से दिया गया सम्मान लौटाकर क्या साबित करना चाहते हैं? यह प्रश्न नागफनी की तरह है। सबको चुभ रहा है। वर्तमान केन्द्र सरकार के समर्थक ही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी सहगल और वाजपेयी की नैतिकता और विरोध करने के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने साहित्यकारों से आग्रह किया है कि सम्मान/पुरस्कार लौटाना, विरोध प्रदर्शन का सही तरीका नहीं है। भारत में अभिव्यक्ति की आजादी है। लिखकर-बोलकर सरकार पर दबाव बनाइए, विरोध कीजिए। अगर आपकी कलम की ताकत चुक गई है या फिर एमएम कलबर्गी की हत्या से आपकी कलम डर गई है, तब जरूर आप विरोध के आसान तरीके अपना सकते हो।
आप तो सरस्वती पुत्र हो तर्क के आधार पर सरकार को कठघरे में खड़ा कीजिए। वरना, समाज तो यही कहेगा कि आप साहित्य को राजनीति में घसीट रहे हो। सरकार की आलोचना के लिए आपके पास तर्क नहीं हैं, इसलिए संकरी गली से निकल लिए। आम और खास लोग बातें बना रहे हैं कि आप सम्मान के बूते खूब प्रतिष्ठा तो हासिल कर ही चुके हो, अब उसे लौटाकर मीडिया में सुर्खियां भी बटोर रहे हो। ध्यान देने की बात है कि किसी लेखक को महज सम्मान देने के लिए सम्मान नहीं किया जाता बल्कि सम्मान के साथ जुड़ी जिम्मेदारी भी उसे सौंपी जाती है। सम्मान लौटाने का मतलब है कि लेखक अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। 
बहुत से प्रबुद्धजन सम्मान लौटाने वालों पर 'दरबारी साहित्यकार' होने के आरोप लगा रहे हैं। उनका तर्क है कि साहित्यकारों में इतनी ही नैतिकता थी तो उन्होंने इससे पहले कभी सम्मान क्यों नहीं लौटाया? क्या कांग्रेस के शासनकाल में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए? क्या कांग्रेस के शासनकाल में अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने के प्रयास नहीं हुए? क्या कभी मुस्लिमों की भीड़ ने हिन्दू की हत्या नहीं की? इस देश में वर्षों से यह होता रहा है। जिन राज्यों में वामपंथियों की सरकारें रही हैं, वहां भी विरोधी विचारधारा के लोगों की हत्याएं होती रही हैं, कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों को प्राण गंवाने पड़े हैं। तब 'साहित्यकारों' ने सम्मान नहीं लौटाए। आज साहित्यकार इतना आडम्बर क्यों कर रहे हैं? 
आम आदमी भी साफतौर पर देख पा रहा है कि यह साहित्यकारों की राजनीति है। कुछ खास किस्म के साहित्यकारों का 'पॉलिटिकल स्टैंड'। एबीपी न्यूज के वरिष्ठ पत्रकार बृजेश कुमार सिंह ने तो सीधेतौर पर नयनतारा सहगल की नैतिकता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। उन्होंने अपने लेख में ऐसे तथ्यों को सामने रखा है, जिनसे नयनतारा की नैतिकता और राजनीति बेपर्दा हो जाती है। नयनतारा की अंतरआत्मा तब सोयी रही जब उनके ही नेहरू-गांधी रिश्तेदारों ने प्रधानमंत्री रहते हुए सांप्रदायिक दंगों का समर्थन ही नहीं किया बल्कि दंगइयों को संरक्षण तक दिया था। आपातकाल लागू करके अभिव्यक्ति की आजादी ही नहीं बल्कि मौलिक अधिकार भी छीन लिए थे। 
दरअसल, वाजपेयी और सहगल की नैतिकता चयनित है। उनका यह फैसला इस बात की ताकीद करता है कि ये भी लेखकों की उसी जमात से आते हैं, जिसे भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दुत्व से एलर्जी है। वरना क्या बात है कि उत्तरप्रदेश की सरकार से सवाल पूछने की जगह अशोक वाजपेयी प्रधानमंत्री की चुप्पी से बेचैन हैं? इसी उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर और कोसीकलां के दंगे में उन्मादी मुसलमानों की भीड़ ने जब हिन्दू युवकों की हत्या की तब किसी ने कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार से सवाल नहीं किए थे, क्यों? चाहे कोई मुहम्मद इखलाक (दादरी में गोहत्या के आरोप में मारा गया युवक) हो, गौरव (मुजफ्फरनगर के दंगे में मारा गया युवक) या फिर देवा (कोसीकलां के दंगे में मारा गया सब्जी व्यापारी), किसी की भी हत्या बर्दाश्त नहीं है। ऐसी घटनाएं शर्मिंदा करती हैं। उससे भी अधिक शर्मिंदगी तब होती है जब इन घटनाओं पर ओछी राजनीति होती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share