मंगलवार, 1 सितंबर 2015

आत्महत्या नहीं है संथारा

 जै न पंथ को सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद बंधी है। संथारा प्रथा पर रोक लगाने के राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया है। राजस्थान हाईकोर्ट ने जनहित याचिका की सुनवाई करने के बाद संथारा को आत्महत्या करार देकर इस पर रोक लगाने के आदेश दिए थे। सभी जैन पंथी हाईकोर्ट के आदेश से आहत महसूस कर रहे थे। नरम स्वभाव का जैन समाज बरसों पुरानी प्रथा संथारा-संलेखना पर रोक लगाने और उसकी तुलना आत्महत्या जैसे कायराना कृत्य से करने पर भड़क उठा था। समूचा जैन समाज आदेश के विरोध में एकजुट होकर सड़कों पर निकला। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में राजस्थान हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी है। पुनर्विचार याचिका दायर की है। सुप्रीम कोर्ट से मिले स्टे को जैन समाज आंशिक जीत मान रहा है। जैन समाज का मत है कि संथारा किसी भी तरह से आत्महत्या नहीं है। आत्महत्या भावावेश में की जाती है जबकि संसार से मोहभंग होने पर जैन मतावलम्बी संथारा लेते हैं। महीनों कठोर उपवास और तप के जरिए संथारा किया जाता है।
        यह बात सही भी है। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति नकारात्मक विचारों से घिरने के बाद जीवन त्यागने की ओर आगे बढ़ता है। आत्महत्या का विचार तात्कालिक कारणों से मन में आता है। यथा- परीक्षा में असफल होने पर विद्यार्थी जीवनलीला समाप्त कर लेते हैं। भौतिक प्रेम में असफल प्रेमी-प्रेमिका अपना अमूल्य जीवन त्याग देते हैं। कर्ज में डूबा व्यक्ति सामाजिक बदनामी के डर से गोली मार लेता है, फांसी पर झूल जाता है, जहर खा लेता है, तालाब में डूब जाता है या अन्य कोई आसान रास्ता चुन लेता है, जीवन को समाप्त करने का। आत्महत्या के पीछे इसी तरह के अन्य कारण भी बहुत छोटे और महत्वहीन होते हैं। आत्महत्या में जीवन समाप्त करने का रास्ता भी कठोर नहीं होता, परीक्षा नहीं होती। जीवन के संघर्ष से डरा हुआ व्यक्ति आत्महत्या करता है। कोई व्यक्ति प्रसन्नता और आनंद के साथ आत्महत्या का रास्ता नहीं चुनता। बल्कि आत्महत्या का निर्णय लेते वक्त वह घोर निराशा, नकारात्मकता और अवसाद से भरा रहता है। जबकि संथारा प्रत्येक मायने में आत्महत्या से उलट है। सूक्ष्म जीव हत्या तक को पाप मानने वाला जैन मतावलम्बी प्रसन्नचित्त होकर संथारा लेता है। यानी स्पष्ट है कि वह जीवन की हत्या नहीं करता। जीवन को एक आयाम देता है। संथारा कठोर तपस्या है। यदि वास्तविकता में व्यक्ति का संसार से मोहभंग हुआ है तभी वह महीनों चलने वाले कड़े उपवास को सफलतापूर्वक कर पाने में समर्थ होता है। क्षणभंगुर कारण से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति संथारा कर ही नहीं सकता। संथारा करने वाला व्यक्ति सकारात्मक होता है। वह निराश नहीं होता और न ही किसी अवसाद से ग्रस्त होता है। 
        तथाकथित कुछ विद्वान संथारा को सती प्रथा से जोड़ रहे हैं। संथारा को सती प्रथा से जोड़े जाने के तर्क भी एकदम गलत हैं। सती प्रथा वैकल्पिक नहीं थी। पति की मृत्यु के बाद जीने की इच्छा रखने वाली महिला को भी जबरन पति की चिता पर चढ़ा दिया जाता था। जबकि संथारा लेना है या नहीं, इसकी पूरी आजादी व्यक्ति को है। संथारा लेने के लिए किसी प्रकार का दबाव नहीं होता है। संथारा किसी से जबरन नहीं कराया जाता बल्कि यह तो ऐच्छिक है। अंतरआत्मा से आवाज आती है तब व्यक्ति स्वयं को कठोर परीक्षा के लिए तैयार करता है। अपनी स्वेच्छा से सांसारिक बंधनों से मुक्त होने की प्रक्रिया पर आगे बढ़ता है। हाईकोर्ट के आदेश पर स्टे लगने से जैन समाज को थोड़ी राहत मिली है। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने तक वे अपनी परंपरा को उत्साह और उल्लास के साथ कर सकेंगे। अब देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट किस तरह राजस्थान हाईकोर्ट से निराश जैन समाज की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करेगा।

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