शनिवार, 25 अप्रैल 2015

वह मरता रहा, ‘आप’ बोलते रहे, छी!

 'छी हो, ऐसी राजनीति पर...' जिसने भी सुना कि जतंर-मतंर पर किसान ने भरी सभा में आत्महत्या कर ली, लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का भाषण अनवरत जारी रहा। 'ये कैसा नेता है? ये कैसी सियासत है? दुर्भाग्यपूर्ण है यह...' उन सबके बोल लगभग यही थे। राजनीति का घृणित अध्याय। क्या संवेदनाएं मर गई हैं? हम मनुष्य ही हैं न, संदेह होता है। मोहल्ले में भी किसी अपरिचित की मौत हो जाती है तो सन्नाटा खिंच जाता है, लोगों के घरों में चूल्हे नहीं जलते। लेकिन, जंतर-मंतर पर भरी सभा में, मुख्यमंत्री के सामने एक किसान पेड़ पर झूल जाता है, आम आदमी के मसीहा कहलाने की जिद पाले नेताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी राजनीति चलती रहती है। किसान की मौत को भुनाने के लिए सब गिद्ध की तरह झपट पड़ते हैं। आम आदमी पार्टी की नई राजनीति, औरों से अलग राजनीति, जनता के हित की राजनीति, यही है क्या? तो नहीं चाहिए ऐसी राजनीति और संवेदनहीन नेताओं की फौज।
        किसान की मौत का उपहास बनानेवाले और उसकी चिता पर राजनीतिक रोटियां सेंकनेवाले नेता अब चैनल पर बहस के दौरान फूट-फूटकर रो रहे हैं। कल तक पत्रकारों के सवालों पर खीज निकालनेवाले, असंवेदनशीलता का प्रदर्शन करनेवाले, माफ़ी मांगना तो दूर खेद तक प्रकट नहीं करनेवाले नेता (आशुतोष) अब रोते भी दिख रहे हैं और (केजरीवाल) माफ़ी भी मांग रहे हैं। हालांकि इस रोने में और माफ़ी मांगने में भी साफ़ राजनीति नज़र आ रही है। जनता किस चेहरे को सच माने?
संवेदना के दो आंसू तक नहीं :
किसान हितैषी बनने के लिए कोरे भाषण बंद करो, कुछ काम करो। खुद को आम आदमी कहनेवाले मुख्यमंत्री की आंखों के सामने भूमिपुत्र ने अपनी इहलीला समाप्त कर ली। बहुत दिन नहीं गुजरे, जिस नेता पर जनता ने असीम प्रेम लुटाया था, वह मुख्यमंत्री संवेदना के दो आंसू नहीं बहा सका। इस घटनाक्रम से जनता ठगा-सा महसूस कर रही होगी। 'मैं आम आदमी हूं' लिखी टोपी पहन लेने से कोई आम आदमी नहीं हो जाता। उसके लिए तो कोमल हृदय चाहिए, संवेदनाओं का समुद्र चाहिए, पर दु:ख कातरता चाहिए, सहजता चाहिए, ये सब होने पर ही आदमी आम होता है। वरना तो सबने टोपी ही पहन रखी हैं और बरगलाकर दूसरों को भी टोपी पहना रहे हैं। क्या अच्छा होता अगर किसान गजेन्द्र सिंह की मौत पर सभा विसर्जित कर दी जाती? लोग घृणा से देखने की जगह और प्यार देते अगर मुख्यमंत्री ने दो आंसू बहा दिए होते। किसान की आवाज उठाओ, लेकिन समय तो देख लो। भाषण तो बाद में भी हो जाता, उस वक्त तो उस किसान के परिवार को हमारी संवेदनाओं की जरूरत थी। लेकिन, कहां, किससे उम्मीद कर रही है जनता? धीरे-धीरे अपने असली रंग में आ रहे और आम आदमी से छल कर रहे नेताओं से कोई अपेक्षा न ही की जाए तो अच्छा है।
         मुख्यमंत्री के लोग ढांढस बंधाने की जगह जले पर नमक छिड़क रहे हैं-'अगली बार किसान को बचाने के लिए मुख्यमंत्री को पेड़ पर चढ़ा देंगे।' पत्रकार से नेता बने आशुतोष गुप्ता आप कहना क्या चाहते हो? साफ-साफ कह दो कि आप भी सब राजनीतिक दलों और नेताओं की तरह हो, जो आम आदमी होने, संवेदनशील होने का ढोंग रचते हैं। कुमार विश्वास तो कवि है और कवि का हृदय तो संवेदनाओं से भरा होता है, तभी तो कवि के हृदय से कविता सहज ही बहकर निकलती है। लेकिन, राजनीति में आकर एक कवि का कोमल हृदय भी पत्थर हो गया लगता है। तभी तो आम आदमी पार्टी के नेता (अब से वे कवि नहीं) कुमार विश्वास भूमिपुत्र की मौत को उनकी पार्टी के खिलाफ षड्यंत्र बताते हैं।
गजेन्द्र की मौत षड्यंत्र तो नहीं ? :
षड्यंत्र तो हो सकता है! गजेन्द्र सिंह के घरवालों ने भी आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं को आत्महत्या के लिए जिम्मेदार बताया है। गजेन्द्र सिंह के भाईयों ने आरोप लगाया है कि यह आम आदमी पार्टी का ड्रामा था, जिसमें उनके भाई की मौत हो गई। गजेन्द्र सिंह को आत्महत्या के लिए उकसाया गया था। भाई श्याम सिंह ने आरोप लगाया है कि मनीष सिसोदिया ने फोन करके गजेन्द्र सिंह को बुलाया था। बहन ने तो सुसाइड नोट पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। उसने पूरे भरोसे के साथ कहा है कि मौके से जो सुसाइड नोट बरामद हुआ है, उसमें गजेन्द्र सिंह की हैंडराइटिंग नहीं है। उसने यह भी दावा किया है कि ऐसा कोई संकट नहीं था कि उसके बहादुर भाई को आत्महत्या का विकल्प चुनना पड़ता। दिल्ली पुलिस की जांच से सामने आई बातों से भी आम आदमी पार्टी ही घिरती नजर आ रही है।
       पुलिस का कहना है कि जब गजेन्द्र सिंह फांसी लगा रहा था तब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता ताली बजाकर उसे उकसा रहे थे। उसे बचाने के लिए कोई आगे नहीं आया। जब वह लटक गया तब कुछ कार्यकर्ता ऊपर चढ़े। भीड़ ने आगे जाने के लिए पुलिस को रास्ता नहीं दिया। चलिए, षड्यंत्र है या हादसा, जांच में सब सामने आ जाएगा। लेकिन, आम आदमी पार्टी मानवता के कठघरे में तो दोषी है। पार्टी  के कार्यकर्ताओं और शीर्षस्थ नेताओं के सामने एक किसान पेड़ पर चढ़कर फांसी का फंदा बना रहा है, सब देख रहे हैं लेकिन, उसे रोकने का प्रयास करने कोई आगे नहीं आया। हालांकि यह मानने के लिए दिल तैयार नहीं है फिर भी चलिए, मान लिया कि यह सब इतनी जल्दी हुआ कि किसी को कुछ सूझा नहीं। लेकिन, उसके बाद जंतर-मंतर में जो चलता रहा, उसे कैसे भुलाया जा सकेगा। भूमिपुत्र की लाश लटक रही है और नेताजी भाषण दे रहे हैं। सच में घिन आती है, ऐसी राजनीति पर। वर्तमान समय में भारतीय राजनीति का चरित्र देखकर कहा जा सकता है कि अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है। लोगों की भावनाओं का उपहास मत बनाओ। समूची राजनीति के लिए संभलने का वक्त है। संभल जाओ। वरना, राजनीति और राजनेताओं से भोली-भाली जनता का रहा-सहा भरोसा भी उठ जाएगा। 
किसान की फिक्र किसे है :
जंतर-मंतर में राजस्थान के दौसा जिले के गांव नांगल के एक किसान और कई तरह से सौफा बांधने की कला जानने वाले गजेन्द्र सिंह की ही मौत नहीं हुई बल्कि घृणित राजनीति ने देश के सभी किसानों को फंदे पर लटका दिया। देश का किसान सोचने पर मजबूर है कि समूची राजनीति में वह कहां है? उसकी फिक्र किसे है? वोटों के लिए ही क्यों उसे याद किया जाता है? हर जगह वोट तलाशनेवाले नेता, देश के लिए अन्न उगाने वाले किसान को भी वोट की फसल मानते हैं। वरना, कोई बताए राजनीति में और सरकारी नीति में किसान की कितनी चिंता है। उसके संवर्धन के लिए अब तक क्या प्रयास हुए हैं। वर्षों बाद भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन हुए हैं। उस पर भी किसान दुविधा में है। भूमि अधिग्रहण बिल उसके हित में है या अहित में। वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भरोसा करे या विपक्षी दलों का। उसे कुछ सूझ नहीं रहा है। यूं तो राजनीति का चरित्र ही हो गया है, लोगों को दुविधा में रखने का। सब पानी की तरह साफ-साफ नहीं दिखना चाहिए। राजनीति को यह चरित्र बदलना होगा। 
इस देश में उद्योगपति-पूंजीपति आत्महत्या क्यों नहीं करते? क्योंकि सब सरकारों की नजर में उनके हित प्राथमिक हैं। उनके लिए योजनाएं हैं। बहरहाल, इस देश में कोई क्यों आत्महत्या करे। कर्म और श्रम प्रधान देश है भारत। सरकार की प्राथमिकता में सब हों। किसानों के कल्याण पर सरकार को स्थायी नीति बनानी चाहिए। देश का उदर पोषण करने वाले किसान के पेट को भी दोनों वक्त का भोजन मिल सके, इस दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए। सरकार घबराए नहीं, किसान को उससे मुफ्त में कुछ नहीं चाहिए। वह तो परिश्रमी है। बस, सरकार को इतना करना होगा कि उसकी फसल का उचित मूल्य उसे मिल सके। कोई ऐसा कानून नहीं बनाया जाए कि किसान से उसकी मर्जी के खिलाफ जमीन छीन ली जाए। प्राकृतिक आपदा से उसकी फसल चौपट हो जाए तो ईमानदारी से सर्वे हो और उसके नुकसान की भरपाई की जाए। सम्मान के साथ उसे मुआवजा मुहैया कराया जाए। सरकारों को इस दिशा में भी सोचना चाहिए कि जिस किसान पर खेती के लायक जमीन नहीं हो, उसे जमीन उपलब्ध कराई जा सके। इससे खाली पड़ी सरकारी जमीन पर भी किसान के परिश्रम से अन्न उग सकेगा। सबके हाथ काम होगा, सरकार उनके संरक्षण की चिंता करेगी तो फिर कोई किसान क्यों आत्महत्या करेगा?  

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