सोमवार, 12 जनवरी 2015

शिक्षा नीति में दिखे विवेकानन्द का चिंतन

 यु वा नायक स्वामी विवेकानन्द को याद करते ही बुद्धि, हृदय और शरीर में ऊर्जा का संचार होने लगता है। स्वामी विवेकानन्द सबके प्रेरणा स्रोत हैं। लेकिन, युवाओं के तो वे हृदय सम्राट हैं। यही कारण है कि उनकी जयंती (१२ जनवरी) युवा दिवस के रूप में मनाई जाती है। देश की वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से देखें तो स्वामी विवेकानन्द, उनके विचार, उनका चिंतन, उनकी सीख आज बहुत प्रासंगिक हैं। दरअसल, भारत दुनिया का सबसे युवा देश है। निकट भविष्य में हम और अधिक जवां होंगे। लेकिन, क्या ये तरुणाई हमारी ताकत बन सकेगी? यह बड़ा प्रश्न है। ये तरुणाई देश को शक्ति तभी दे सकेगी जब इनकी आस्था भारत में होगी। फिर एक सवाल उठता है कि क्या आज की शिक्षा नीति ऐसी है कि जिससे युवाओं में राष्ट्र के प्रति श्रद्धा के भाव जागृत होते हैं? समर्पण की बात आती है? 'राष्ट्र सबसे पहले' यह भाव जागृत होता है क्या? यही नहीं, क्या हम अपनी तरुणाई को राष्ट्र के उद्देश्य के अनुरूप शिक्षित कर रहे हैं? हमारी शिक्षा नीति क्या राष्ट्र के उद्देश्य के अनुरूप है? स्वामी विवेकानन्द ने जिस मैन मेकिंग एजुकेशन की बात कही है, क्या आज की शिक्षा नीति वैसी है? आज की शिक्षा विद्यार्थी को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया की ओर ले जाती है या पैसा कमाने की मशीन बनाने का प्रयास करती है। स्वामी विवेकानन्द अर्थवादी शिक्षा व्यवस्था का कड़ा विरोध करते थे लेकिन, आज की शिक्षा व्यवस्था तो पूरी तरह अर्थ आधारित होकर रह गई है। क्या इस अर्थवादी शिक्षा नीति से हम अपने राष्ट्र को फिर से शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी बना सकेंगे? मैकाले की शिक्षा पद्धति का उद्देश्य मनी मेकिंग, पैसा बनाने की शिक्षा देना था और स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा का उद्देश्य मैन मेकिंग, व्यक्ति निर्माण था। हमें मैकाले की शिक्षा नीति पर आगे बढऩा चाहिए या फिर स्वामी विवेकानन्द के विचारों को भारत की शिक्षा नीति में शामिल करना चाहिए? यदि हम सही अर्थों में भारत निर्माण करना चाहते हैं, भारत को शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया का नेतृत्व करते हुए देखना चाहते हैं तो भारत की शिक्षा नीति में स्वामी विवेकानन्द के विचारों का समावेश होना ही चाहिए। शिक्षा नीति में परिवर्तन समय की मांग है और यह परिर्वतन स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा संबंध उपदेशों को ध्यान में रखकर होना चाहिए। 
       स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा पर बहुत बल दिया था। उनका स्पष्ट मानना था कि भारत का सबसे अधिक नुकसान किसी ने किया है तो वह अशिक्षा ने किया। चंद लोगों के मस्तिष्क तक शिक्षा के सीमित रह जाने से भी भारत का अनिष्ट हुआ है। इस संबंध में २४ अप्रैल १८९७ को 'भारती' की सम्पादक सरला घोषाल को दार्जिलिंग से लिखे उनके पत्र को देखना होगा। स्वामीजी लिखते हैं- 'भारत के सत्यानाश का मूल कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या-बुद्धि राजशासन और दम्भ के बल से केवल मुट्ठीभर लोगों के अधिकार में रखी गई है। यदि हमें फिर से उन्नति करनी है, तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा अर्थात् जनता में विद्या का प्रचार करना होगा।' सम्पूर्ण भारत को शिक्षित करने का चिंतन जब स्वामी विवेकानन्द करते हैं तो वे प्रत्येक उपाय पर विचार करते हैं। गांव-गांव, नगर-नगर घूम रहे साधु और संन्यासियों को भी वे उनका मूल काम याद दिलाने का प्रयास करते हैं। भारत को शिक्षित करने के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे इन्हें शिक्षा अभियान से जोडऩे की बात करते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने २३ जून १८९४ को शिकागो से मैसूर के महाराजा को पत्र लिखा कि मान लीजिए महाराज आपने हरएक गांव में एक नि:शुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा। क्योंकि, भारत में इतनी अधिक गरीबी है कि गरीब लड़के पाठशाला आने की बजाय खेतों में अपने माता-पिता को मदद देना या दूसरे किसी उपाय से रोटी कमाने का प्रयत्न करना अधिक पसंद करेंगे। यदि पहाड़ मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास क्यों न जाय? यदि गरीब लड़का शिक्षा के मन्दिर तक न आ सके, तो शिक्षा को ही उसके पास जाना चाहिए। हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं, जो गांव-गांव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमें से कुछ लोग सुनियन्त्रित रूप से ऐहिक विषयों के भी शिक्षक बनाये जाएं तो गांव-गांव, दर-दर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा ही नहीं देंगे, बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे। 
      ऐहिक शिक्षा के साथ ही धर्मशिक्षा पर भी स्वामी जी का जोर था। वे विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ अध्यात्म की शिक्षा को भी अनिवार्य मानते थे। शिक्षा के विषय में समय-समय पर दिए गए उनके विचारों से यह परिलक्षित होता था। तीन जनवरी १८९५ को शिकागो से सर एस. सुब्रह्मण्य अय्यर को पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं- 'बहुत सोच-विचार के बाद मेरे मन ने तय किया है कि पहले मद्रास में धर्मशिक्षा के लिए एक विद्यालय खोलना ठीक होगा, फिर इसका कार्यक्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ाया जाएगा। नवयुवकों को वेदों, विभिन्न भाष्यों और दर्शनों की पूरी शिक्षा देनी होगी, जगत् के अन्य धर्मों का ज्ञान भी इसमें शामिल होगा।' लेकिन, हमने क्या किया? शिक्षा को धर्मविहीन कर दिया। सेकुलरिज्म के चक्कर में फंस कर हमने स्वामी विवेकानन्द के विचारों को खूंटी पर टांग दिया। शिक्षा को नैसर्गिक नहीं रहने दिया। यही कारण है कि आज अभिभावक, शिक्षक, राजनेता और प्रबुद्ध वर्ग मूल्य आधारित शिक्षा की जरूरत महसूस कर रहे हैं। समाज की 'गति' देखकर धर्मविहीन, मूल्यहीन, असंवेदनशील शिक्षा में परिवर्तन की बात हर कोई कर रहा है। स्वामी विवेकानन्द के लिए धर्म अंग्रेजी का शब्द 'रिलीजन' नहीं था। स्वामीजी ने धर्म की व्याख्या उन नियमों और संहिताओं के रूप में की, जो प्रकृति में करोंड़ों वर्षों से प्रचलित हैं। इसलिए देश की तथाकथित सेकुलर बिरादरी को धर्मशिक्षा की बात से बिदकने की जरूरत नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने बार-बार बल दिया है कि धर्म ही भारत की आत्मा है। उन्होंने कहा है -'मैं धर्म को शिक्षा का सबसे आंतरिक सारतत्व मानता हूं।' धर्मविहीन वर्तमान शिक्षा मनुष्य को डॉक्टर, इंजीनियर, टेक्नोक्रेट, ब्यूरोक्रेट आदि बनने के लिए प्रेरित करती है। जबकि वास्तव में मनुष्य की शिक्षा का उद्देश्य स्वयं को पहचानने का होना चाहिए। यूनेस्को ने भी शिक्षा पर प्रकाशित अपनी रिपोर्ट का शीर्षक दिया था- 'कुछ होने के लिए सीखना, न कि कुछ बनने के लिए सीखना।' स्वामीजी भी बार-बार कहते रहे कि विद्यार्थी को कुछ बनाने की जरूरत नहीं है। उसके भीतर सबकुछ है, बस उसे बाहर आने दो। 
      यह बात जग जाहिर है कि एक समय में भारत शिक्षा के क्षेत्र में सबसे आगे था। भारत में विश्वविद्यालय जैसे संस्थाएं थीं, जिनमें शिक्षा प्राप्त करने के लिए दुनियाभर से विद्यार्थी आते थे। नगरों में ही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी पाठशालाएं थीं, यह बात प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक धर्मपाल ने भी अपने शोध से प्रमाणित की है। धर्मपाल ने अपनी पुस्तक 'अ ब्यूटीफुल ट्री' में बताया है कि अंग्रेजों के सर्वे के मुताबिक १८वीं सदी में भारत में लाखों की संख्या में स्कूल थे। भारतीयों ने चिंतन, अध्यात्म, सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्र, कला ही नहीं परंतु विज्ञान के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व उपलब्धियां अर्जित की थीं। मैकाले की शिक्षा नीति के प्रभाव में आकर भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में अपना नेतृत्व तो खोया ही, स्वाभिमान भी खो दिया। स्वामी विवेकानन्द लगातार भारतीयों से आग्रह करते रहे कि अपने तईं भेड़-बकरी होने का भ्रम दूर करो। खुद को पहचानो, तुम सिंह हो, अमृत के पुत्र हो। अत्यंत अल्पायु में बहुत कुछ मार्गदर्शन देकर स्वामीजी चले गए। अब उनके मार्गदर्शन पर आगे बढऩे का काम हमारा होना चाहिए। हमारे शिक्षाविदों के सामने ऐसी शिक्षा नीति बनाने की चुनौती है, जिसमे बूते फिर से हम शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी हो जाएं। लेकिन, शिक्षा नीति तय करने से पहले यह जान लेना जरूरी होगा कि स्वामी विवेकानन्द असल में शिक्षा किसे मानते थे? स्वामी विवेकानन्द देवघर (वैद्यनाथ) से २३ दिसम्बर १९०० को एक बंगाली महिला को पत्र में लिखते हैं कि आखिर शिक्षा क्या है? क्या वह केवल कुछ पुस्तकों का पठन-पाठन ही है? नहीं। फिर क्या विविध विषयों का ज्ञान? वह भी नहीं है। शिक्षा तो वह है, जिसके सहारे इच्छाशक्ति का प्रवाह एवं उसकी अभिव्यक्ति संयत की जाती है। अब यह विचार कीजिए कि क्या वह शिक्षा कहलाने के योग्य है, जिसके फलस्वरूप इच्छाशक्ति पीढिय़ों से बलपूर्वक अनवरत अवरुद्ध होकर आज मृतप्राय हो रही है। जिसके प्रभाव से नवीन विचारों की कौन कहे, पुराने तक एक-एक करके विलुप्त होते जा रहे हैं? क्या वह शिक्षा है, जो धीरे-धीरे मनुष्य को मशीन बना दे रही है? मेरे विचार से यंत्रवत् अच्छे होने की अपेक्षा स्वतन्त्र इच्छा और बुद्धि द्वारा प्रेरित होकर एक बार गलती भी कर लेना अधिक श्रेयस्कर है। 
     बहरहाल, स्वामी विवेकानन्द के विचार-दर्शन से होकर गुजरते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि उनके विचारों का प्रमुख केन्द्र जीविकोपार्जन की शिक्षा, तकनीकी ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा नहीं था, वे सबसे पहले व्यक्ति के अंदर निहित क्षमताओं को उजागर करने की शिक्षा देना चाहते थे। वे तकनीकी ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ चरित्र निर्माण की शिक्षा पर अधिक बल देते थे। शिक्षा के संबंध में उनका महत्वपूर्ण कथन है - 'शिक्षा मनुष्य में निहित सम्पूर्णता की अभिव्यक्ति है।'

3 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (13-01-2015) को अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये..; चर्चा मंच 1857 पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    उल्लास और उमंग के पर्व
    लोहड़ी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. Shiksha sarwopari hai. Aihik bhee charm ki bhee. Is lemme liye anemia abhar.

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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