बुधवार, 17 सितंबर 2014

वेब मीडिया का नया आयाम मोबाइल एप

कमोडिटीज कंट्रोल डॉट कॉम के सम्पादक कमल शर्मा से बातचीत

 'स मय परिवर्तनशील है। जब आप समय के साथ जुड़ते हैं तो आपका विकास निश्चित है। बदलाव को समझिए और उसके साथ हो लीजिए, यह ही जीवन है। समूची पत्रकारिता में आ रहे बदलाव को हम सब महसूस कर रहे हैं। वेब मीडिया एक क्रांतिकारी परिवर्तन है। स्थिति यह है कि अगले दो साल यानी 2016 में वेब मीडिया में भी परिवर्तन आना है। हम मीडिया को मुट्ठी में बंद कर घूमेंगे। अपनी खबरें, अपने हिसाब से, जी चाहेगा तब देख-पढ़ सकेंगे। यह होगा। अपना वजूद बचाए रखने के लिए देश के बड़े मीडिया संस्थानों को यह करना ही पड़ेगा।' अपने 30 साल के पत्रकारिता के अनुभव के आधार पर कमोडिटीज कंट्रोल डॉट कॉम के सम्पादक कमल शर्मा ने गहरे आत्मविश्वास के साथ ये विचार साझा किए। उन्होंने वेब मीडिया को समय की जरूरत बताया। उनके साथ हुई बातचीत को बताने से पहले बेहद सहज, सरल और बेबाक कमल शर्मा का जिक्र करना चाहूंगा। 31 अगस्त, 1963 को राजस्थान के गुलाबी शहर जयपुर में जन्मे कमल शर्मा हिन्दी के शीर्ष के उन पत्रकारों में शामिल हैं, जिन्होंने आगे बढ़कर चुनौतियों को स्वीकार किया। वे भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली के पत्रकारिता पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स के पहले बैच के छात्र हैं। बाद में उन्होंने सौराष्ट्र यूनिवर्सिटी, राजकोट से पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। नवभारत टाइम्स, नईदिल्ली से शुरू हुआ पत्रकारिता का सफर बड़े शान से राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला कारोबार, व्यापार, लोकमत समाचार, देवगिरी समाचार और दैनिक भास्कर मुम्बई ब्यूरो प्रमुख होते हुए करीब दस साल पहले कमोडिटीज कंट्रोल डॉट कॉम तक पहुंचा है। इस बीच वे कभी न थके, न रुके और न ही अपने पथ से डिगे। निरंतर चलते जाना ही उनका मूलमंत्र रहा। आज भी देशभर में घूम-घूमकर आर्थिक पत्रकारिता को बढ़ाने के प्रयास कर रहे हैं। ईटीवी ग्रुप में बतौर बिजनेस एडिटर और सीएनवीसी आवाज में बतौर प्रोड्यूसर भी श्री शर्मा काम कर चुके हैं। 
          जब भारत में वेब पत्रकारिता ने कदम रखे तब खालिस पत्रकार इस विद्या में जाने का जोखिम लेने से बच रहे थे, तब पहले पहल वेब पत्रकारिता को चुनौती की तरह कमल शर्मा ने स्वीकार किया। इंडिया इंफो डॉट कॉम के बुलावे पर वहां कंटेंट मैनेजर (सम्पादक) के रूप में सार्थक समय बिताया। मैंने उनसे सवाल किया कि जब आपके साथी टीवी पत्रकारिता की ओर रुख कर रहे थे तब आपने नए माध्यम में जाने की क्यों सोची? भारत जैसे देश में वेब मीडिया के सफल होने पर सब शंका कर रहे थे, तब आपने वेब पत्रकारिता से जुडऩे का साहस कहां से जुटाया? श्री कमल शर्मा ने हंसते हुए कहा - 'सही मायने में जोखिम और चुनौतियों का ही तो दूसरा नाम पत्रकारिता है। फिर, वेब पत्रकारिता में जाने के लिए अलग से साहस की जरूरत कहां।' उन्होंने कहा कि बदलाव समय की अनिवार्य शर्त है। बदलाव को पढऩा आपको आना चाहिए। समय के साथ हो रहे अच्छे बदलाव के साथ आप जुड़ जाते हैं तो आप निश्चित ही ग्रोथ करेंगे। यह सच है, जब वेब मीडिया ने भारत में आमद दर्ज कराई तब उन्हें अच्छे पत्रकारों की जरूरत थी। लेकिन, हर कोई वहां जाने को तैयार नहीं था। जब मैंने वेब पत्रकारिता में जाने का फैसला किया तो दोस्तों ने खूब रोका -'मत जाओ, देश में कम्प्यूटर साक्षर लोग ही बहुत नहीं है तो फिर इंटरनेट पर तुम्हारी खबरों को देखेगा-पड़ेगा कौन? करियर चौपट हो जाएगा, अच्छा-खासा मुकाम तुमने प्रिंट पत्रकारिता में हासिल कर लिया है तो फिर क्यों ऐसा जोखिमभरा फैसला ले रहे हो?' बड़ा अच्छा लगता है कि आज उन सब दोस्तों के अखबार-न्यूज चैनल्स इंटरनेट पर भी हैं। उन्हें भी अपनी-अपनी वेबसाइट बनाने को मजबूर होना पड़ा है। यह ही है वेब मीडिया की ताकत। शुरुआती दौर में इंडिया इंफो डॉट कॉम और रेडिफ डॉट कॉम ही ऐसी वेबसाइट थीं, जिन्होंने कंटेन्ट (समाचार, मनोरंजन और विविध सामग्री) इंटरनेट के माध्यम से परोसने का साहस किया। आज तो ढेरों वेबसाइट हैं। 
        'वेब मीडिया की ताकत से एक सवाल उपजता है, जो आजकल गाहे-बगाहे चर्चा में भी रहता है। आपको क्या लगता है कि वेब मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को खा जाएगा? खत्म कर देगा? दुनिया में जिस तरह बड़े-बड़े अखबारों के शटर गिर रहे हैं, क्या वैसी स्थिति वेब मीडिया भारत में बना सकेगा? हालांकि यही हौव्वा टीवी पत्रकारिता की शुरुआत में उठाया गया था लेकिन हुआ विपरीत, अखबारों के कई एडिशन शुरू हो गए और प्रसार संख्या की तेजी से बड़ी है।' मेरे इस सवाल का श्री शर्मा ने बड़ी सहजता से जवाब दिया। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि अखबार खत्म हो जाएंगे और टीवी चैनल्स बंद हो जाएंगे। लेकिन, आप देखिए कि किस तरह वेब मीडिया ने परम्परागत मीडिया को चुनौती दी है। छोटे-बड़े अखबारों के सामने यह स्थिति खड़ी कर दी है कि उन्हें अपने वेब पोर्टल्स शुरू करने पड़े हैं। अब कोई भी नया अखबार-चैनल अपने वेब पोर्टल के साथ ही लोगों के बीच आता है। यह बड़ा बदलाव है और परम्परागत मीडिया को बड़ी चुनौती है। अखबारों ने आज जो उपलब्धि हासिल की है, उसे पाने में उन्हें 150 से 200 साल लग गए। इलेक्ट्रोनिक मीडिया को भी लम्बा वक्त बीत गया है। लेकिन, वेब मीडिया ने कम समय में अपनी सशक्त भूमिका का प्रदर्शन किया है। वेब मीडिया ने डॉट कॉम बबलबस्ट के बाद जो धमाकेदार वापसी की है, उसमें सब शंकाओं का समाधान है। दरअसल, वेब मीडिया नए भारत का मीडिया है। आज का युवा बहुत ही सेलेक्टिव हो गया है। चैनल्स पर जरूरी नहीं कि आप जब फुर्सत हो तब आपकी रुचि की खबरें आ रही हों। अखबार में भी आपको पन्ने पलटने पड़ते हैं। लेकिन, वेब मीडिया ने तो क्रांति कर दी है। आप जब चाहें, जहां चाहें, अपने अनुसार खबरें पढ़ सकते हैं। 
      श्री शर्मा ने बताया कि वेब पत्रकारिता का अगला चरण मोबाइल है। अब हर हाथ में स्मार्टफोन है और युवाओं की बड़ी आबादी टेक्नोक्रेट। इसलिए मोबाइल एप्लीकेशन के जरिए कंटेन्ट उपलब्ध कराने के प्रयास तेज हो रहे हैं। आप देखिएगा, 2016 में भारतीय पत्रकारिता का नया चेहरा मोबाइल होगा। देश के कुछ बड़े मीडिया समूहों ने इस दिशा में चिंतन और काम शुरू भी कर दिया है। जो मीडिया हाउस बदलाव के हिसाब से अपने को तैयार नहीं कर रहे, उनके अस्तित्व पर भी संकट आ सकता है। प्रिंट, टीवी और वेब तीनों ही माध्यम यदि मोबाइल एप्लीकेशन के बढ़ते जाल से जुडऩे का प्रयास नहीं करेंगे तो वे काफी पीछे छूट जाएंगे। 
        करियर की संभावनाओं के हिसाब से भी वेब पत्रकारिता को उन्होंने बेहतर क्षेत्र बताया। इस क्षेत्र में कितनी संभावनाएं हैं उसे कुछ यूं भी समझ सकते हैं कि यदि एक दिन के लिए भी गूगल को बंद कर दिया जाए तो क्या स्थिति हो जाएगी, आपको अंदाजा है। श्री शर्मा ने कहा कि वर्तमान में बड़े से बड़े मीडिया हाउस भी अपनी वेबसाइट के लिए अभी अलग से रिपोर्टर नहीं रखते हैं। लेकिन, निकट भविष्य में यह करना पड़ेगा। आज भी कई वेबसाइट हैं जो व्यावसायिक तरीके से संचालित की जा रही हैं, वहां डेस्क के साथ ही फील्ड में काम करने वाले लोगों की जरूरत है। वेब मीडिया हमें उद्यमी बनने का भी मौका दे रहा है। दो-तीन साथी मिलकर बेहद कम लागत में, महज दो-तीन लैपटॉप, इंटरनेट कनेक्शन और पोर्टल के नाम रजिस्टेशन के साथ ही कुछ रुपयों में अपनी वेबसाइट संचालित कर सकते हैं। गूगल सहित कई उदाहरण हैं, जिनकी शुरुआत बेहद छोटे प्रयास ही हुई लेकिन वे आज क्या हैं, हम सब जानते हैं।
        वेब मीडिया का जिक्र जैसे ही आता है तो उसमें फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग सहित दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट को भी शामिल कर लिया जाता है। यह कहां तक सही है? क्या इन्हें भी वेब मीडिया मानेंगे? चाय का एक सिप लेते हुए कमल शर्मा ने जवाब दिया- 'आपकी चिंता सही है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर प्रसारित हो रही भ्रामक खबरों के कारण अब इसे मीडिया कहना थोड़ा जल्दबाजी होगा। पत्रकारिता की पहली शर्त होती है कि कुछ भी अपुष्ट, अस्पष्ट और सामाजिक सौहार्द बिगाडऩे वाले समाचार प्रसारित न हों लेकिन सोशल साइट्स पर इन सिद्धांतों का पालन नहीं किया जा रहा है। हालांकि यह भी सच है कि भले ही सोशल नेटवर्किंग साइट्स को वेब मीडिया अभी न कहा जाए लेकिन ये वेब मीडिया के सहायक टूल्स तो है हीं।' उन्होंने बताया कि इंटरनेट ने आज हर आदमी को पत्रकार बना दिया है। हर आदमी की हद और हाथ में अपनी बात दुनिया के सामने पहुंचाने की ताकत आ गई है। मर्यादा का पालन करना हमारे हाथ में है। 
(मीडिया विमर्श में प्रकाशित साक्षात्कार)

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

हिन्दी के सम्मान के दिन

 भा रतीयों के लिए खुशी की बात है कि उनका प्रधानमंत्री दुनिया से हिन्दी में बात कर रहा है। हिन्दी के सौंदर्य, सौम्यता और समृद्धि से दुनिया को परिचित करा रहा है। विदेशी भाषा में बोलने वाले भारत का सिर, अब स्वाभिमान से थोड़ा ऊंचा हुआ है। अपनी भाषा में संवाद करके वह गौरव का अनुभव कर रहा है। अपनी जुबान पाकर वह सबसे खुलकर हंस-बोल रहा है। हिन्दी के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आग्रह प्रसंशनीय और सराहनीय है। उनका स्वागत है, वंदन है। वे महज हिन्दी के ही हामी नहीं हैं, भारतीय भाषाओं के संरक्षण-संवर्धन की भी उन्हें चिंता है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं का सम्मान अंग्रेजी को टा-टा बाय-बाय बोले बिना संभव नहीं है। लम्बे अरसे बाद देसीपन की महक समेटकर चलने वाले प्रधानमंत्री के कारण सरकार की सभी महत्वपूर्ण वेबसाइट हिन्दी में अपडेट होना शुरू हो गईं हैं। सोशल मीडिया पर नेताओं और मंत्रियों ने भी अपनी निज भाषा में चहकना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री ने तो पूरी तैयारी कर ली है कि वे दुनिया से अब सिर्फ हिन्दी में ही बात करेंगे। शपथ ग्रहण समारोह में आए विभिन्न देशों के राजनयिकों से हिन्दी में बात करके उन्होंने हिन्दी को सम्मान दिलाने की शुरुआत कर दी थी। अब विदेशी दौरों पर भी वे अपने प्रण का पालन कर रहे हैं। नेपाल, भूटान और अब जापान में सबसे हिन्दी में बात की है। अंग्रेजी भाषी अमरीका से भी बुलावा उन्हें आ चुका है, वहां भी वे हिन्दी में ही बात करेंगे, यह भरोसा है।  
यह मान लिया गया है अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है। जबकि वास्तविकता यह नहीं है, यह तो महज एक भ्रम है। दुनिया से संवाद करने के लिए यह एकमात्र खिड़की भी नहीं है। दुनिया में तमाम देश हैं जहां बहुत पढ़े-लिखे लोग भी अंग्रेजी में अंगूठाछाप हैं, उन्हें अंग्रेजी की जरूरत भी नहीं है। अच्छी अंग्रेजी बोलने में सक्षम नरेन्द्र मोदी ने भी यही साबित करने का प्रयास किया है कि संवाद करने के लिए भाषा का कोई बंधन नहीं है। आप अपनी भाषा में बोलिए, लोग सुनेंगे और मानेंगे भी। दुनिया सम्मान भी करेगी कि आप अपनी भाषा में संवाद करते हैं, आपकी अपनी बोली है, दुनिया से संवाद करने के लिए आप किसी और की भाषा के मोहताज नहीं। अपनी भाषा से परहेज और अंग्रेजी भाषा से प्रेम के कारण भारत को कई बार अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ा है। विजयलक्ष्मी पण्डित जब राजदूत का पद ग्रहण करने रूस गईं थी तब अंग्रेजी में लिखे उनके परिचय-पत्र को स्तालिन ने उठाकर फेंक दिया था। स्तालिन ने विजयलक्ष्मी पण्डित से पूछा था कि क्या आपकी अपनी कोई भाषा नहीं है? दुनियाभर में तमाम देश हैं, जहां उनकी मातृभाषा ही संवाद और कामकाज की भाषा है। यहूदी तो अपनी भूमि-भाषा दोनों खो चुके थे लेकिन मातृभूमि और मातृभाषा से अटूट प्रेम का ही परिणाम था कि यहूदियों ने अपनी जमीन (इजराइल) भी वापस पाई और अपनी भाषा (हिब्रू) को भी जीवित किया। करीब सवा सौ साल पहले तक फिनलैंड के निवासी स्वीडी भाषा का इस्तेमाल करते थे लेकिन एक दिन उन्होंने तय किया कि अपनी भाषा को सम्मान देंगे। तभी से फिनी भाषा में वहां सारा कामकाज चल रहा है। इसी तरह जार के जमाने में रूस में फ्रांसीसी भाषा का दबदबा था। लेकिन अब वहां रूसी भाषा सर्वोपरि है। शिक्षा, व्यापार, अनुसंधान-आविष्कार अपनी भाषा में संभव ही नहीं बल्कि अधिक सहज भी है, यह इन देशों ने साबित करके दिखा दिया है। लेकिन, स्वतंत्रता के ६० साल बाद तक भी अंग्रेजी के मोहपाश में फंसे हम भारतीय यह ही समझते रहे कि यही एकमात्र भाषा है जो हमारा कल्याण कर सकती है। वर्ष १९५९ में भारतीय संसद में एक दु:खद प्रकरण हुआ। संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अहिन्दी भाषी राज्यों को यह आश्वासन दे दिया कि जब तक ये राज्य चाहेंगे संघ के कार्यों में अंग्रेजी का रुतबा कायम रहेगा। अपनी भाषा को स्थापित करने की जगह हमने स्वार्थों और वोट बैंक की दूषित राजनीति के कारण भाषाई विवाद खड़े कर दिए। आपसी झगड़े के कारण अंग्रेजी धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं के माथे पर चढ़ गई और उनके वजूद के लिए खतरा बन गई है। मजबूत इरादों वाले नरेन्द्र मोदी से उम्मीद है कि वे राजभाषा में संसोधन कराएंगे और हिन्दी को उसका हक दिलाएंगे। हिन्दी को सिंहासन पर बैठाने के लिए आम सहमति बनाने के लिए भी नरेन्द्र मोदी प्रयास करेंगे, ऐसी उनसे उम्मीद है, वे यह कर सकते हैं।
यह स्पष्ट कर देना उचित है कि अंग्रेजी से किसी को दिक्कत नहीं है। भाषाएं जितनी भी सीखी जाएं, अच्छा ही है। दिक्कत तो अंग्रेजियत से है। अंग्रेजी भाषा के साथ जो अंग्रेजियत जुड़ी है, उससे सबसे अधिक नुकसान हो रहा है। महज दो प्रतिशत अंग्रेजी बोलने वाले अंग्रेजीदां लोगों के कारण अन्य भारतीयों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। सरकार-व्यवस्था में इन अंग्रेजीदां लोगों का वर्चस्व है। काले अंग्रेजों ने अंग्रेजी को इतना महिमामंडित कर रखा है कि हिन्दी अपने ही देश में दोयम दर्जे की भाषा हो गई है। अंग्रेजी महारानी हो गई, महारानी हिन्दी दासी हो गई। अंग्रेजीदां लोगों द्वारा हिन्दी भाषियों के अपमान-उपहास की घटनाएं अकसर सामने आती रही हैं। कॉन्वेंट स्कूलों में हिन्दी भाषी बच्चों को मानसिक तौर पर प्रताडि़त किया जाना आम बात है। कॉन्वेंट स्कूलों में अंग्रेजी नहीं बोलने पर 'मैं हिन्दी बोलता हूं, मैं गधा हूं' लिखी तख्तियां मासूम बच्चों के गले में लटका दी जाती हैं। चाय-समोसा बेचने वाले साधारण आदमी पर भी अंग्रेजी का इतना दबाव है कि वह 'चिल्लर या खुल्ले पैसे' नहीं बल्कि 'चेंज' मांगता है। आज के 'कूल डूड' को पैंतालीस समझ नहीं आता, उन्हें तो बस 'फोर्टीफाइव' ही मामूल है। 'हाय-हैल्लो' कहने वाले उनके 'फास्टफ्रेंड' हैं, नमस्ते से स्वागत करने वाले को ये 'एटीट्यूड' दिखाते हैं। अंग्रेजी परवरिश में पले-बढ़े ये नौजवान हिन्दी परिवार से आए युवाओं के सामने ऐसा माहौल खड़ा कर देते हैं कि मजबूरन उन्हें भी 'राम-राम' की जगह 'गुड मोर्निंग' कहना पड़ता है। अंग्रेजी के दबाव में हिन्दी भाषी युवाओं की स्थिति यह हो जाती है कि उन्हें अंग्रेजी में एक वाक्य भी शुद्ध बोलना भले न आता हो लेकिन ये सेव को 'एप्पल', भिण्डी को 'लेडीज फिंगर', कुत्ते को 'डॉगी' और रूमाल को 'हैंकी' जरूर कहते हैं। यह सब अंग्रेजी के वर्चस्व का ही प्रतीक तो है। यह सर्वमान्य सत्य है कि व्यक्ति अपनी भाषा में अधिक रचनात्मक हो सकता है, अधिक शिक्षा प्राप्त कर सकता है, सीख सकता है और समझ सकता है लेकिन भारतीय शिक्षा संस्थानों में स्थिति उलट है। उच्च शिक्षा में अंग्रेजी का बोलबाला है। निश्चित ही शिक्षा संस्थानों में हिन्दी की अनदेखी का खामियाजा भारत उठा रहा है। 
भारतीय भाषाओं और उन्हें जीने वाले देसी लोगों को अंग्रेजी के आगे झुकना नहीं पड़े, अंग्रेजी के कारण रुकना नहीं पड़े, अंग्रेजी के कारण शर्मिंदा नहीं होना पड़े बल्कि अपनी मातृभाषा में संवाद करने के लिए दूसरों को भी प्रेरित करने के भाव को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, हिन्दी के अच्छे दिन लाकर वे भारतीयों का स्वाभिमान तो जगा ही रहे हैं, गुलामी की खुरचन को भी साफ करने की कोशिश कर रहे हैं। वर्ष २०१३ में एक सर्वेक्षण में खुलासा किया गया था कि २०६० तक अंग्रेजी से आगे निकल जाएगी हिन्दी। कारण, हिन्दी सर्वसमावेशी है। हिन्दी के पास भारतीय भाषाओं और बोलियों की अपार संपदा है। कई भाषाओं से नए-नए शब्दों को स्वीकार करने के कारण हिन्दी समय के साथ और अधिक समृद्ध होती जा रही है। भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण ने पहली बार यह सर्वेक्षण कराया था। हिन्दी के लिए लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जज्बे को देखकर तो लगता है अंग्रेजी के भूत को भगाने का यह सपना २०६० नहीं बल्कि उससे कहीं पहले पूरा हो जाएगा। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लिए काम कर रहे योद्धाओं के साथ ही आमजन को भी प्रधानमंत्री के साथ हो लेना चाहिए। अपने आम जीवन में हमें हिन्दी के उपयोग को बढ़ा देना चाहिए। यह बहुत आसान है। अपने बच्चे को 'काऊ को रोटी खिलाना' नहीं सिखाएं बल्कि उसे 'गाय को रोटी खिलाना' ही सिखाएं। हस्ताक्षर हिन्दी में करें। बैंक में धन निकासी की पर्ची हिन्दी में भरने का अभ्यास करें। अगर आपकी दुकान-मकान पर नाम पट्टिका अंग्रेजी में है तो उसे बदलकर हिन्दी में कर दें। घर के बाहर 'वेलकम' की जगह 'सुस्वागत' लिखें। अभिवादन भारतीय परंपरा से करें। आपसी संवाद हिन्दी में करें। निमंत्रण-पत्र हिन्दी में ही छपवाएं। ऐसे अनेक छोटे-छोटे प्रयोग हैं, जिनकी मदद से हम अपने स्तर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हो सकते हैं। हिन्दी को ही नहीं वरन सभी भारतीय भाषाओं के सम्मान को लौटा सकते हैं। सार्थक बदलाव का छोटा प्रयास भी बड़ा आंदोलन बन जाता है इसलिए आप आगे तो आइए। गौरवशाली भारत के 'शक्तिशाली' प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हौसला बढ़ाइए। 
(वेबसाइट न्यूज़ भारती पर प्रकाशित इस आलेख को न्यूज़ भारती के ही फेसबुक पेज पर एक हजार से अधिक लोगों ने Like किया और करीब 800 लोगों ने Share किया)

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

शिक्षक कौन?

 भा रतीय संस्कृति में पुरातनकाल से ही अपने शिक्षकों के आदर-सम्मान की परम्परा चली आ रही है। हिन्दुस्थान में शिक्षकों को देवतुल्य बताया गया है। विद्यार्थी उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में पूजते रहे हैं। समाज में उनका सर्वोच्च स्थान रहा है। लेकिन, क्या आज ऐसी स्थिति है? क्या आज शिक्षक वास्तव में शिक्षक हैं? क्या शिक्षकों को देवतुल्य मानकर उन्हें सर्वोच्च स्थान दिया जा रहा है? क्या विद्यार्थी भी पहले जैसे हैं, अनुशासित, समर्पित, संयमी? गौरवशाली गुरु-शिष्य परंपरा कहां खो गई? शिक्षा संस्थानों से पढ़-लिखकर निकलने वाली फौज महज डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक और अन्य प्रोफेशनल्स ही नहीं होते हैं बल्कि समाज में उनकी भूमिका बहुत बड़ी है। शिक्षा संस्थानों वे भारत का नेतृत्व करने के लिए तैयार होते हैं। गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से उन्हें गौरवशाली भारतीय संस्कृति से परिचित भी कराया जाता है। ताकि वे अपनी संस्कृति के संवाहक बन सकें। इसलिए गुरु पूर्णिमा हो या शिक्षक दिवस, ये सवाल उठते हैं। इन सवालों के जवाब खोजना बेहद जरूरी है। ये भारत के भविष्य और उसके अस्तित्व से जुड़ी चिंताएं हैं।
            गुरु-शिष्य परंपरा में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक है। शिक्षक है कौन? उसके दायित्व क्या हैं? उसका महत्व क्या है? इन सवालों के जवाब खोजने जब निकलते हैं तो पता चलता है कि शिक्षक वह है जो विद्यार्थी में निहित गुणों को उजागर करके सामने ला देता है, ताकि वह सही दिशा में आगे जा सके और समाज में अपनी भूमिका का निर्वाहन प्रभावी तरीके से कर सके। युवा नायक स्वामी विवेकानन्द का भी यही मानना था कि जिस तरह एक नन्हें बीज के भीतर विशाल वृक्ष छिपा हुआ है, उसे उपजाऊ भूमि में बोया जाए और उचित वातावरण मुहैया कराया जाए तो वह स्वत: ही पहले पौधा और फिर वृक्ष बन जाता है। ठीक इसी तरह किसी भी विद्यार्थी में उसकी प्रतिभा छिपी हुई है, इसलिए उस प्रतिभा को सामने लाने का कार्य शिक्षक का है। लगभग यही बात महर्षि अरविन्द ने कही है कि शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींच कर उन्हें शक्ति में निर्मित करते हैं।
            सिखाना शिक्षक का असल कार्य नहीं है। सीख तो विद्यार्थी स्वयं ही जाता है। दुनियाभर की किताबों से लाइब्रेरी भरीं पड़ी हैं। जानकारियों का नया खजाना इंटरनेट हो गया है। किताबी और पाठ्यक्रम की पढ़ाई तो विद्यार्थी किताबों और इंटरनेट से पूरी कर लेगा। लेकिन, जीवन क्या है और क्यों है? यह सिखाना जरूरी है। जीवन जीने की कला सिखा दी जाए तो किसी भी व्यक्ति को अपना रास्ता साफ नजर आ जाएगा। अपने ४० वर्ष आदर्श शिक्षक के रूप में जीने वाले डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी अपनी कक्षाओं में विद्यार्थियों को जीवन सिखाते थे। वे छोटी-छोटी आनंददायक कहानियों के माध्यम से उच्च नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में उतारने के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित करते थे। विद्यार्थियों के साथ उनके मैत्रीपूर्ण संबंध रहते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई संकोच नहीं होगा तो सहजता के साथ अध्ययन-अध्यापन का कार्य हो सकता है। इसलिए शिक्षक को महज यह करना चाहिए कि विद्यार्थी को वह अधिक से अधिक जिज्ञासु बना दे। उसके अंतर्मन में सवाल पैदा होंगे तो उनके प्रश्न खोजने के लिए वह खुद आगे आएगा। उसकी जिज्ञासाओं का समाधान कहां और कैसे हो सकता है, यह मार्गदर्शन जरूर शिक्षक कर सकता है। यह एक लम्बी प्रक्रिया है। आज-कल या एक दिन में शिक्षक और विद्यार्थी के बीच यह सार्थक परंपरा विकसित नहीं हो सकती। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में यही खामी है। पश्चिम की परिभाषा के मुताबिक जो 'टीचर' है, प्रत्येक छह माह में बदल जाता है। एक सेमेस्टर में कोई पढ़ाता है तो दूसरे सेमेस्टर में कोई दूसरा 'टीचर'। ऐसे में विद्यार्थियों की नैसर्गिक प्रतिभा और दक्षता से शिक्षक ही परिचित नहीं हो पाता तो वह उन विद्यार्थियों को कैसे अपने भीतर झांकने के लिए प्रेरित कर सकता है। छात्रों से 'टीचर' का नाता सिर्फ 'क्लास रूम' तक सीमित है। कक्षा के बाहर उसे कोई मतलब नहीं कि उसका विद्यार्थी क्या कर रहा है? जबकि भारतीय अवधारणा के मुताबिक शिक्षक प्रत्येक मौके पर विद्यार्थी को प्रेरित करने का कार्य करता है। क्योंकि विद्यार्थियों की कामयाबी ही शिक्षक को समाज में अमर बनाती है, सम्मान का स्थान दिलाती है। इसलिए शिक्षक लगातार विद्यार्थी में आ रहे परिवर्तनों पर नजर रखता है। विद्यार्थी में अच्छे बदलाव आ रहे हैं तो उसे उस दिशा में आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया जाता है और विद्यार्थी अनैतिक आचरण की ओर बढ़ रहा है तो उसे सही राह दिखाने की कोशिश शिक्षक करता है।
            भारतीय परंपरा में गुरु की महत्ता इसलिए भी अधिक है क्योंकि वह गुरु ही है जो अपने जीवनभर का अनुभव अपने शिष्य को दे देना चाहता है। जो कुछ उसने अपने जीवन में अर्जित किया, उसे विद्यार्थी के मन में बैठा देता चाहता है। गुरु हमें द्विज बनाता है, पुनर्जन्म देता है। आंखें खोलता है। अपने भीतर झांकने के लिए प्रेरित करता है। हम क्या हैं? हमारे कर्तव्य क्या हैं? हमारे दायित्व क्या हैं? हमें कहां जाना है? यह सब तो शिक्षक ही बताता है। यदि शिक्षक यह न बताए तो व्यक्ति अंधेरी गुफा में भटकता रहेगा। इसलिए विद्यार्थियों को भी चाहिए कि वे अपना समूचा अहंकार त्याग कर शिक्षक के समक्ष उपस्थित हों। उपभोग की संस्कृति आज के युवाओं पर इतनी हावी है कि वे अपने संस्कार भूल गए हैं। मर्यादा भूल गए हैं। शिक्षक ही नहीं वरन अपने से बड़ों का सम्मान भूल गए हैं। उन्हें युवा जोश का अहंकार है। टेक्नोक्रेट होने का अहंकार है। आजादी का अहंकार है। उन्हें अपने अधिकारों का तो ज्ञान है लेकिन अपने कर्तव्यों का भान नहीं है। पश्चिम से आ रही आंधी से उनके होश उड़े हुए हैं। इस बे-होशी की हालत में वे अपने शिक्षकों का सम्मान ही नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि बदले हालातों में शिक्षक भी अपने आप को सीमित कर रहे हैं। वे भी 'क्लास रूम स्टडी' पर ही पूरा ध्यान दे रहे हैं। बाहर की दुनिया का ज्ञान देने का प्रयत्न करने से वे बच रहे हैं। जीवन सिखाने से वे बच रहे हैं। उन्हें डर है कि पता नहीं किस घड़ी छात्रों की कोई हरकत उन्हें अपमान सहने के लिए मजबूर कर दे। यही कारण है कि शिक्षा संस्थानों से डॉक्टर-इंजीनियर तो निकल रहे हैं लेकिन जिम्मेदार नागरिक नहीं निकल रहे। विद्यार्थियों, शिक्षकों और शिक्षा नीति निर्धारकों को अपनी भूमिका को ठीक से समझना होगा। महर्षि अरविन्द ने शिक्षक को राष्ट्र का वास्तविक निर्माता बताया है। इसलिए तमाम प्रतिकूल समय के बावजूद शिक्षक को तो अपने कर्म, अपनी भूमिका के साथ न्याय करना ही होगा। देश के निर्माण की बागडोर उसके हाथ में है। 

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

हिन्दू हैं हम, वतन है हिन्दुस्थान हमारा

 हि न्दू कौन हैं? भारत में रहने वाला प्रत्येक निवासी हिन्दू है क्या? क्या भारत के मुस्लिम और ईसाई सम्प्रदाय के लोग भी हिन्दू होंगे? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत का कथन उचित है? ऐसे ही तमाम सवालों पर हम कुछ देर बाद लौटेंगे और जवाब टटोलने का प्रयास करेंगे। फिलहाल एक महात्मा और जिज्ञासु व्यक्ति के बीच के संवाद को देखते हैं। तो कहानी कुछ-कुछ इस तरह है कि एक महात्मा रथ में सवार होकर कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक व्यक्ति दिखा। जो कुछ सवालों के जवाब खोज रहा था। महात्मा को देखकर वह ठिठक गया और अपनी कुछ जिज्ञासाएं उनके सामने रख दीं। महात्मा रथ से नीचे उतरे। उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा- 'मेरे पीछे क्या है? ' उन सज्जन ने जवाब दिया- 'रथ है महाराज।' महात्मा ने अपने सारथी को संकेत किया। सारथी ने रथ से घोड़े निकाल दिए, रथ के ऊपर लगी सुसज्जित छत निकाल दी और पहिए भी निकाल दिए। 'अब क्या है मेरे पीछे? ' महात्मा ने फिर पूछा। सज्जन ने कहा-'महाराज घोड़े हैं, जमीन पर पहिए पड़े हैं और कुछ लकड़ी के जोड़ भी पड़े हैं। तब महात्मा ने कहा-'जो सुन्दर रथ तुम अभी देख रहे थे, वह इन तमाम चीजों के मेल से बनी विशिष्ट पहचान थी। पहिए, सुसज्जित छत, घोड़े और लकड़ी की अपनी स्वतंत्र पहचान है लेकिन इनका सुव्यवस्थित मेल रथ का आकार ले लेता है।' महात्मा और जिज्ञासु व्यक्ति के संवाद को यहीं छोड़कर अब हम अपने सवालों के जवाब ढूंढऩे के लिए निकलते हैं। एक बात तो स्पष्ट हो गई होगी कि अलग-अलग संज्ञाओं के योग से एक विशिष्ट पहचान बनती है। इसी संदर्भ में हम आरएसएस के सरसंघचालक मोहनराव भागवत के कथन का अध्ययन करने की कोशिश करते हैं- 'इंग्लैण्ड में रहने वाले अंग्रेज हैं, जर्मनी में रहने वाले जर्मन हैं और अमरीका में रहने वाले अमेरिकन हैं तो फिर हिन्दुस्थान में रहने वाले सभी हिन्दू क्यों नहीं हो सकते?' उन्होंने यह भी कहा है कि सभी भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान हिन्दुत्व है और इस देश में रहने वाले इस महान संस्कृति के वंशज हैं। हिन्दुत्व एक जीवन शैली है और किसी भी ईश्वर की उपासना करने वाला या किसी भी ईश्वर की उपासना नहीं करने वाला भी हिन्दू हो सकता है। 
          सबसे पहले सवाल उठता है कि मोहनराव भागवत ने यह बयान क्यों दिया? क्या हिन्दूवादी पार्टी भाजपा के केन्द्रीय सत्ता में आने के बाद संघ भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है? क्या यह स्वयंसेवक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को संदेश देने की कोशिश है कि ऐसी कुछ संवैधानिक व्यवस्था हो कि भारत के नागरिकों को हिन्दू कहा जाए। ये सब सवाल मूल मसले से दूर ले जाने वाले हैं। बेमतलब सवाल हैं। दरअसल, लम्बे समय से कथित सेक्यूलरों ने हिन्दुत्व, हिन्दुस्थान और हिन्दू शब्द के प्रति प्रत्येक भारतीय के मन में कुछ-कुछ घृणा और वितृष्णा का भाव भरने का काम किया है। आम आदमी हिन्दू और हिन्दुत्व सुनते ही बिदक जाता है। सेक्यूलरिज्म के इन्हीं दुकानदारों ने अपने स्वार्थों के कारण विभिन्न सम्प्रदायों के बीच, खासकर हिन्दू और मुसलमानों के बीच अलगाव की खाई गहरी करने की कोशिश की है। इसी खाई और कटुता को पाटने की कोशिश आरएसएस के सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने की है। हिन्दू शब्द के जरिए उन्होंने इस देश को चिर-पुरातन सांस्कृतिक एकता के सूत्र की याद दिलाने की कोशिश की है। संघ की यह कोशिश आज की नहीं है बल्कि आरएसएस की ओर से लम्बे अरसे से हिन्दुत्व को सही अर्थ में समझाने का प्रयास किया जा रहा है। संघ की विचारधारा में हिन्दुत्व शब्द को अधिक समावेशक बनाया गया है। संघ नियमित रूप से कहता रहा है कि भारत से एकात्मता रखनेवाला कोई भी हिन्दू है, जैसे मुस्लिम हिन्दू और ईसाई हिन्दू। भारत में निवास करनेवाला एवं भारतीय संस्कृति का अनुसरण करनेवाला हिन्दू है। सभी भारतीय हिन्दू हैं। भारतीयत्व ही हिन्दुत्व है। केवल मुस्लिम अथवा ईसाई होने के कारण ही किसी की राष्ट्रीयता में परिवर्तन नहीं होता है। 
          हिन्दू शब्द की उत्पत्ति को देखें तो पाएंगे कि यह शब्द सनातन और वैदिक परम्परा का पालन करने वाले लोगों का पर्यायवाची नहीं है बल्कि यह एक विशेष भू-भाग में रहने वाली जातियों-सम्प्रदायों को अर्थ देता है। भारत के बाहर के लोग सिन्धु नदी के इस पार बसे लोगों को हिन्दू कहा करते थे। बाहरी आक्रमणों से पहले हिन्दू शब्द की व्याख्या में वैदिक, सनातनी, जैन, बौद्ध, आर्य, शैव, वैष्णव और संस्थाल तक सभी समाविष्ट थे। क्योंकि, तब सिन्धु से लेकर हिन्द महासागर तक फैली भारतभूमि पर ये और कुछ दूसरे सम्प्रदाय ही बसते थे। लेकिन, बाद में शक, हूण, मंगोल, ईसाई और मुस्लिम, आक्रमणकारी के रूप में इस देश में आए। वे सब-के-सब महान भारत की भूमि पर ही बस गए और यहां की संस्कृति में घुलमिल गए। तब हिन्दू की व्याख्या में भारतभूमि पर रह रहे पारसी, ईसाई और मुस्लिम सहित अन्य सम्प्रदाय के लोग भी आने लगे, भले ही उनकी उपासना पद्धति अलग-अलग थीं। महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने भी हिन्दू का मतलब बताया है कि सिंधु नदी के उद्गम स्थान ले लेकर हिन्द महासागर तक सम्पूर्ण भारतभूमि जिसकी मातृभूमि है, पवित्र भूमि है, वह हिन्दू है। हिन्दू शब्द सर्वसमावेशक है। सच ही तो है, जो व्यक्ति भारतभूमि को अपनी मातृभूमि मानकर उसके प्रति श्रद्धा समर्पित करता है, वह हिन्दू ही तो है। 
          अब कुछ विद्वान कह सकते हैं कि मान लिया कि ब्रिटेन के लोग ब्रिटिश, चीन के नागरिक चीनी और रूस के बाशिंदे रशियन कहलाते हैं। हम भारत के नागरिकों को भारतीय भी तो कह सकते हैं, हिन्दू कहना जरूरी है क्या? तब जवाब है- कोई समस्या नहीं है, भारतीय कहने में। लेकिन, हिन्दू कहने से कौन-सा पहाड़ टूट जाता है। जबकि दुनिया हमें हिन्दू कहती है। भारतीय और हिन्दू में बहुत फर्क नहीं है। दोनों शब्द एक-दूसरे के समानार्थी हैं। समूची दुनिया हमारी क्षेत्रीय सीमाओं और उसके करोड़ों निवासियों को सदियों से 'भारत' और 'भारतीय' या 'हिन्द' और 'हिन्दी' के नाम से पुकारती आ रही है। सभी शब्दावलियों में मूल शब्द हिन्दू है जो पारसियों, अरबों और यूरोपवासियों को 'सिन्धु नदी के उस पार रहने वाले लोग' का तात्पर्य देता है। हिन्दू और हिन्दुत्व से विरोध इसलिए भी ठीक नहीं क्योंकि यह साम्प्रदायिक नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी विशिष्ट पहचान होती है। भारत की भी पहचान उसका हिन्दूपन या हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व हमारी पहचान और राष्ट्रीयता है। हिन्दुत्व का विरोध करने वाले भी देश के बाहर हिन्दू ही माने जाते हैं। इसीलिए तो गोवा के उपमुख्यमंत्री फ्रांसिस डिसूजा बड़े गर्व के साथ कहते हैं- 'इसमें कोई शक नहीं कि भारत हिन्दू राष्ट्र है। भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है और आगे भी रहेगा। उन्होंने कहा कि इस देश में रहने वाले सभी लोग हिन्दू हैं, मैं खुद एक ईसाई हिन्दू हूं।' दुनियाभर में भारत के लोगों की सांस्कृतिक पहचान हिन्दू के नाते ही है। इसी कारण भारत के मुसलमानों को भी अरब में हिन्दू मुसलमान या हिन्दी मुसलमान कहा जाता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के गहरे मित्र, प्रख्यात कवि और लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने भी अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा है कि - 'असल में, भारतवर्ष हिन्दुओं का ही देश है और इस देश की संस्कृति अपनी व्यापक विशिष्टताओं के साथ हिन्दू-संस्कृति ही समझी जाती है।' वे आगे लिखते हैं कि - 'प्राचीन संस्कृत और पाली-ग्रन्थों में हिन्दू नाम कहीं भी नहीं मिलता। किन्तु, भारत से बाहर के लोग भारत अथवा भारतवासियों को हिन्दू या 'इंडो' कहा करते थे, इसके प्रमाण हैं। भारतवर्ष को हिन्दुस्तान और भारतवासियों को हिन्दू कहना इतिहास और भूगोल, दोनों ही दृष्टियों से युक्ति-संगत है। 
          हिन्दू अवधारणा का विचार करते समय सबसे पहले यह स्पष्ट करना चाहिए कि हिन्दुत्व का हम क्या अर्थ समझते हैं। हिन्दुत्व को आज अनेक सही-गलत अर्थों में समझाया और प्रस्तुत किया जाता है। हिन्दू जाति, हिन्दू राष्ट्र या हिन्दू देश, हिन्दू धर्म, हिन्दू सम्प्रदाय आदि संकल्पनाओं को कभी अज्ञान के कारण तो कभी अल्पज्ञान और कभी जानबूझकर अपने निहित स्वार्थों से प्रेरित होकर उलझाया जा रहा है। विवाद खड़े किए जा रहे हैं, खासकर तब जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या संघ का कोई अनुषांगिक संगठन हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दुस्थान शब्द को रचनात्मक पहचान देने की कोशिश करे। अन्यथा तो हिन्दू शब्द को भ्रामक और घृणित रूप में प्रस्तुत करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों की कारिसतानियों पर देश में सन्नाटा पसरा रहता है। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने 'हिन्दू' को अपने व्यापक अर्थ के साथ सबके सामने रखा और इस राष्ट्र को एक सांस्कृतिक पहचान से एकजुट करने की दिशा में पहल की है। विविधता में एकता खोजने वाले देश में कम से कम एक पहचान तो सबकी हो। भाषा, बोली, पूजा पद्धति, खान-पान और आचार-विचार में बंटें लोग कहीं तो एक दिखें। वर्षों से जो सांस्कृतिक पहचान रही है, उसे स्वीकार करने में हर्ज कैसा? हिन्दू कोई धार्मिक पहचान नहीं है, जिस पर विवाद खड़ा किया जाए, बेमतलब तौबा-तिल्ला मचाया जाए, सेक्यूलरों को छाती कूटने की भी जरूरत नहीं है क्योंकि हिन्दू अपने वास्तविक अर्थ में जीवन पद्धति है और लोकतंत्र का प्रतीक है। यह सांस्कृतिक पहचान है, धार्मिक पहचान नहीं। इसलिए गर्व के साथ भारतभूमि पर रहने वाला प्रत्येक नागरिक कह सकता है- हिन्दू हैं हम, वतन है हिन्दुस्थान हमारा।
- (ग्वालियर से प्रकाशित दैनिक "स्वदेश" में प्रकाशित)

सोमवार, 1 सितंबर 2014

सत्य-असत्य

भोपाल स्थित इंदिरा गाँधी मानव संग्रहालय में कई प्रकार के मुखौटों की प्रदर्शनी 

मैं नहीं जानता सत्य क्या है
और असत्य क्या? 
बस जानता हूं इतना
जो जी रहा हूं सत्य है
पर मृत्यु को झुठला रहा हूं, वह असत्य है। 

सत्य-असत्य 
बीच में बहुत बारीक-सा पर्दा है
जो उठ गया सत्य है
जो छुप गया असत्य है। 

असल में, 
असत्य का कोई अस्तित्व नहीं
वह तो सत्य का मुखौटा
ओढ़कर ही आता है। 
मुखौटा हट जाने पर
सत्य ही सामने आता है। 

सत्य साहसी है, वीर है
वह समाज के लिए लड़ता है
जबकि असत्य कायर है, भीरू है
वह डरता है, समाज को ठगता है।

सत्य कभी खुद को छिपाता नहीं
वह तो भीड़ से निकलकर सामने आता है
किन्तु असत्य सदैव स्वयं को छिपाता है
कभी भीड़ के पीछे
तो कभी रूप बदल आता है।
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- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)