बुधवार, 16 अप्रैल 2014

बौद्धिकता पर हमला पतन का संकेत

 लो कतंत्र की सबसे अनूठी बात यह है कि इसमें सबको समान रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। अन्य तरह की किसी भी शासन व्यवस्था में इस कदर आजादी नहीं है। दरअसल, लोकतंत्र की ताकत आम जनता में निहित है। लोकतंत्र के संचालन का सूत्र लोगों के हाथ में होता है। लोकतंत्र की सफलता और विफलता भी जनता के हाथ में ही है। इसलिए समय-समय पर अपने लोकतंत्र को ठोक-बजाकर देखते रहना जरूरी है। उसकी समालोचना और प्रशंसा दोनों ही जरूरी हैं। प्रबुद्धवर्ग अगर सरकार या फिर शासन व्यवस्था में शामिल किसी राजनीतिक दल की नीतियों की आलोचना करता है तो इसमें गलत क्या है? क्या राजनीतिक विमर्श करने वाले प्रबुद्ध लोगों पर राजनीतिक हमला उचित है? क्या बौद्धिक बहस और आवाज का गला घोंटने के प्रयास की निंदा नहीं की जानी चाहिए? मध्यप्रदेश में मुद्दों की राजनीति छोड़कर कांग्रेस इसी तरह की दोयम दर्जे की राजनीति कर रही है। मध्यप्रदेश के ही नहीं देश के जाने-माने पत्रकार, लेखक, राजनीतिक विचारक और मीडिया शिक्षक संजय द्विवेदी को मध्यप्रदेश कांग्रेस ने अपने निशाने पर लिया है। उनके एक लेख को प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला बताकर नाहक हंगामा खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। उन्हें एक खास विचारधारा के प्रभाव का लेखक बताने की बेहद छोटी हरकत की गई है। 
       कांग्रेस के आरोप पढ़-सुनकर समझा कि मध्यप्रदेश में अपना वजूद खो रही कांग्रेस या तो बहुत हड़बड़ी में है, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा, जो उल्लू की लकड़ी उसे किसी ने पकड़ा दी, उसी पर हंगामा खड़ाकर अपनी राजनीति की दुकान चलाने की कोशिश कर रही है। या फिर उन्हें अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं है। संजय द्विवेदी पर आरोप लगाने वाले और उन्हें नौकरी से हटाने की मांग करने वाले कांग्रेस के प्रवक्ता या तो लेखक संजय द्विवेदी को जानते नहीं है या फिर उन्होंने जानबूझकर यह खिलदंड किया है। पत्रकारिता में निष्पक्षता का नाम ही संजय द्विवेदी है। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में दैनिक भास्कर, नवभारत, हरिभूमि और जी न्यूज के संपादक, समाचार संपादक और एंकर के रूप में देश ने उनके काम को जाना है, उनकी विश्वसनीयता को परखा है। आज तक उनकी लेखनी पर किसी ने अंगुली नहीं उठाई। संजय द्विवेदी जितने प्रिय राष्ट्रवादी विचारधारा के पैरोकारों के हैं, वामपंथी खालिस कॉमरेड भी उन्हें उतना ही प्रेम करते हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों के शीर्षस्थ नेताओं से उनके आत्मीय ताल्लुक हैं। दोनों ही दल के गंभीर नेता उनका और उनकी लेखनी का सम्मान करते हैं। शिद्दत से उन्हें याद करते हैं। खास विचारधारा का लेखक होने के आरोप तो उनके काम के कुछ अध्याय देखने पर ही खाजिर हो जाते हैं। मध्यप्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह (भाजपा और राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग इनके धुर विरोधी हैं) के अभिनंदन ग्रंथ के संपादन में संजय द्विवेदी की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बीआर यादव पर लिखी किताब 'कर्मपथ' का संजय द्विवेदी ने संपादन ही नहीं किया वरन उसके विमोचन में दिग्विजय सिंह (राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग अपने घोर शत्रु के रूप में दिग्विजय सिंह को देखते हैं) को सादर बुलाया। जब राहुल गांधी ने सकारात्मक राजनीति के प्रयास किए तो संजय जी ने खुलकर उनकी तारीफ में लिखा। अन्ना हजारे ने सामाजिक क्रांति की अलख जगाई तो उन्होंने अन्ना के समर्थन में जागरण पत्रिका तक प्रकाशित कर दी। अरविंद केजरीवाल ने जब तक आम आदमी को अभिव्यक्त किया श्री द्विवेदी उनके साथ थे, उनकी प्रशंसा में लिखा लेकिन अरविन्द जब राह भटके तो उनकी आलोचना भी शिद्दत से की। संजय द्विवेदी किसी के इशारे पर नहीं लिखते। जब मन उद्देलित होता है तो मनोभाव कागज पर उतरते हैं। वे समालोचक हैं, किसी के निंदक या प्रशंसक नहीं। 
        देश के प्रधानमंत्री और कांग्रेस की नीति की आलोचना पीएम के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू और पूर्व कोल सेक्रेटरी पीसी पारिख ने तथ्यों के आधार पर किताब लिखकर की है। दोनों किताबों पर खूब हंगामा हुआ। कांग्रेस ने विरोध किया। मनमोहन सिंह हमेशा की तरह चुप रहे। उन्होंने कुछ नहीं कहा क्योंकि वे सब जानते हैं। वे लोकतंत्र की मर्यादा भी समझते हैं। लेकिन शायद मध्यप्रदेश कांग्रेस ने राजनीति की अलग ही राह तय की है। इसीलिए महज एक समालोचना पर ही बिफर गए और एक बुद्धिजीवि पर राजनीतिक हमला कर दिया। लोकतंत्र में गलत कार्यों की आलोचना और अच्छे कार्यों की तारीफ करने का सबको अधिकार है। 
       किसी राष्ट्र और राज्य को पतन के मार्ग पर ले जाना बहुत आसान है, उस राष्ट्र और राज्य की बौद्धिक परंपरा-संपदा पर आघात करना शुरू कर दो। रामायण के किस्से सबके जेहन में होंगे। राक्षस किस तरह ऋषियों के आश्रम पर आक्रमण कर उनकी हत्याएं कर रहे थे। वे उस राज्य की बौद्धिक संपदा को खत्म कर हमेशा के लिए उस पर अपना अधिपत्य जमाना चाहते थे। राक्षस जानते थे कि जब तक बुद्धिजीवि जीवित रहेंगे किसी भी राज्य पर गलत ढंग से शासन करना संभव नहीं। बुद्धिजीवि गलत होता देख खामोश नहीं बैठते, वे वैचारिक क्रांति का बिगुल फूंकते हैं, स्वाभिमान और आत्मगौरव के लिए लडऩे के लिए समाज को जागृत करते हैं। विख्यात साहित्यकार नरेन्द्र कोहली भी कहते हैं कि कि राजा देश बनाते हैं और ऋषि राष्ट्र बनाते हैं। हमें ऋषियों की जरूरत है। समर्थ राष्ट्र के लिए चिंतनशील पत्रकारों और शिक्षकों की जरूरत है। ऐसे में लेखक संजय द्विवेदी पर कांग्रेस के राजनीतिक हमले को राष्ट्र पर हमले के रूप में क्यों नहीं देखा जाना चाहिए? कांग्रेस शायद भूल गई है कि इंदिरा गांधी जैसी सशक्त राजनेता के माथे पर महज एक कलंक है, आपातकाल का। यह भयंकर कलंक है। आपातकाल में भी कांग्रेस ने सबसे पहले बौद्धिक जगत पर हमला किया था। बौद्धिक जगत पर हमले की इस भयंकर गलती के कारण इंदिरा गांधी के तमाम अच्छे कार्यों पर पर्दा पड़ जाता है। अगर आपको देश की चिंता है तो मुद्दों की राजनीति करो। विचार करो कि संजय द्विवेदी ही नहीं देशभर के लेखकों को क्यों आपकी आलोचना करने पर विवश होना पड़ा है। संजय द्विवेदी जैसे लेखकों का तो काम ही है, आईना दिखाना। आईने में दिख रही तस्वीर गंदी है तो उसे सुधारने का दायित्व हमारा है। हमें अपने चेहरा धोने की जरूरत है न कि आईना दिखाने वाले को गरियाने की। 
      संजय द्विवेदी एक संतुलित लेखक हैं। उन्हें मैं कोई छह-आठ माह से नहीं जानता। लम्बे अरसे से उन्हें पढ़ता आ रहा हूं। 'की-बोर्ड के सिपाही' के नाते उनका लेखन की दुनिया में बड़ा सम्मान है। आदर के साथ उनको पढ़ा जाता है। वे सच को सच लिखते हैं। अपने लेखन से राजनीति ही नहीं समाज को दिशा देने का कार्य संजय द्विवेदी कर रहे हैं। उनकी लेखनी की धार को कुंद करने का कांग्रेस का यह कुत्सित प्रयास ठीक नहीं है। इस प्रयास की निंदा होनी चाहिए और विरोध भी।

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