बुधवार, 29 अगस्त 2012

कठपुतलियों के हाथ में है देश

लोकेन्द्र सिंह/भारतवाणी
 दे श का वर्तमान परिदृश्य देखकर लगता नहीं हम आजाद हैं। आजादी के ६६वें सालगिरह पर मनाई पार्टी का भी खुमार नहीं चढ़ा। देश में लूट मची है। सरकार के मंत्री भ्रष्टाचार करके भी साफ मुकर रहे हैं। जबकि सब बेईमानी की कीचड़ में सिर तक सने हैं। अब तो कथित ईमानदार प्रधानमंत्री का झक सफेद कुर्ता भी कोयले से काला हो गया है। निर्लज्जता देखिए यूपीए के मंत्रियों की- वे कैग को ही गरिया रहे हैं, झुठला रहे हैं। विपक्ष और जनता सवाल उठा रही है लेकिन यूपीए-२ सरकार कंबल ओढ़ कर घी पी रही है। इतना ही नहीं एक और गंभीर दृश्य है देश के बुरे हाल का। देश बंधक है वंशवाद की राजनीति का। देश को कठपुतलियां चला रहीं है। जनता की पीड़ा पर प्रधानमंत्री चुप है। राष्ट्रपति सरकार की बोली बोल रहे हैं। गजब देखिए संसद का संचालन भी अध्यक्ष के विवेक से नहीं वरन किसी के इशारे से हो रहा है। इशारे कहां से हो रहे हैं? कौन कर रहा है? किसे नहीं पता! सबको पता है।
    भारतीय संसद के इतिहास की पुस्तक में काले पन्नों पर दर्ज होने वाला प्रकरण है राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन और केन्द्रीय मंत्री राजीव शुक्ला की कानाफूसी। वह तो शुक्र है कांग्रेस और यूपीए सुप्रीमो ने सबके दिमाग अपने पास गिरवी रख रखे हैं। वरना राजीव शुक्ला उपसभापति के कान में फुसफुसाने से पहले माइक बंद करना नहीं भूलते। उपसभापति के माइक ने राज्यसभा में उपस्थित सांसदों और राज्यसभा टीवी ने देश की आवाम को दिखा-सुना दिया कि राजीव शुक्ला ने पीजे कुरियन से कहा - कोयला घोटाले पर हंगामा थमेगा नहीं, आप कार्रवाई दिनभर के लिए स्थगित कर देना। इस पर कुरियन बोलते हैं - जी अच्छा। इसके बाद उपसभापति ने एकाएक सदन की कार्रवाई को स्थगित कर दिया। जबकि सदन का संचालन निष्पक्ष रूप से किया जाना चाहिए था। सभापति किसी न किसी पार्टी से जरूर होता है लेकिन वह पार्टी लाइन से ऊपर होता है। उस समय वह एक तरह से पंच परमेश्वर की कुर्सी पर बैठा होता है। पंच तो सबका होता है और किसी का नहीं। सदन में सभापति सर्वोच्च होता है। भारतीय संसदीय व्यवस्था में सभापति की महती भूमिका है। उनकी जिम्मेदारी है कि सदन का सफलता से संचालन हो ताकि जनता के करोड़ों रुपए हंगामे की भेंट न चढ़े। सदन की कार्रवाई से देशहित में कुछ न कुछ निकल कर आए। सदन का संचालन सभापति को स्वविवेक के आधार पर करना होता है किसी की इच्छानुसार नहीं। खैर, इस कानाफूसी काण्ड से पीजे कुरियन 'कु'नजीर बन गए। लोग वर्षों-बरस याद करेंगे कि एक थे कुरियन जो खाली दिमाग थे। सदन का संचालन सरकार के मंत्री के इशारे पर करते थे। एक क्षण रुकिए, क्योंकि यहां साफ कर दूं कि पीजे कुरियन को यह ज्ञान भी मिस्टर शुक्ला ने स्वविवेक से नहीं दिया। बल्कि इसके पीछे सौ फीसदी कांग्रेस सुप्रीमो के निर्देश होंगे।
    इधर, देश के प्रधानमंत्री की नाक के नीचे लगातार घोटाले हो रहे हैं और अब भी वे ईमानदारी का लबादा ओढ़े घूम रहे हैं। बोल तो उतना ही रहे हैं जितना उनको निर्देश है। देश में शायद ही कभी इतना लाचार, बेबस और कमजोर प्रधानमंत्री रहा होगा। भविष्य में भी शायद ही ऐसा कोई आए। बड़ी लज्जाजनक स्थिति है कि अब भारत के प्रधानमंत्री चुटकुलों का केन्द्रीय पात्र हो गए हैं। वर्ष २००४ में सेन्ट्रल हॉल से लेकर अब तक प्रधानमंत्री ने इतनी बेइज्जती सहन की है कि उनकी सहनशीलता का लोहा मानना पड़ेगा। असली लौहपुरुष हैं हमारे प्रधानमंत्री। सबको याद होगा सेन्ट्रल हॉल का नाटक। सोनिया गांधी 'त्याग' की मूर्ति बनी थी। सारे कांग्रेसी टसुए बहा रहे थे, साष्टांग दंडवत थे। वे सोनिया के अलावा किसी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना नहीं चाहते थे। मनमोहन सिंह के पक्ष में एक भी संसद सदस्य नहीं था। मैडम ने पूरा होमवर्क करके प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया था। उन्हें मालूम था कि 'मिस्टर क्लीन' उनके आदेशों का अक्षरश: पालन करेंगे। साथ ही भ्रष्टाचार में ढाल का भी काम करेंगे। प्रधानमंत्री ने अपनी उपयोगिता समय-समय पर प्रदर्शित की। यूपीए-२ में हजारों करोड़ रुपए की लूट कथित ईमानदार पीएम की छवि के पीछे होने दी। मनमोहन सिंह सशक्त प्रधानमंत्री नहीं है इस बात का वे खुद प्रमाण देते हैं। जनता और विपक्ष ने जब भी प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगा, मनमोहन चुप्पी साध गए। कांग्रेस एकजुट होकर उनके बचाव में आ जाते हैं। माफ कीजिएगा, उनके नहीं ये सब अपने बचाव में एकजुट होते हैं क्योंकि इन्हें उनकी आड़ लेकर देश को और लूटना था। इसमें एक गजब की बात देखिए - जनता और विपक्ष के मांगने पर इस्तीफा नहीं देने वाले प्रधानमंत्री युवराज के लिए कुर्सी छोडऩे को दिन-रात तैयार रहते हैं। सार्वजनिक मंचों से इस बात को कह भी चुके हैं। जलालत झेलने को तैयार लेकिन चलेंगे रिमोट से ही, ऐसे हैं हमारे पीएम ऑफ इंडिया। यही हाल गृहमंत्री और वित्तमंत्री सहित अन्य के हैं।
    राष्ट्रपति देश का प्रथम और सर्वोच्च पद है। पद की गरिमा बहुत है। लेकिन, कांग्रेस ने अपने शासन काल में जिस तरह राज्यपाल व्यवस्था को तार-तार किया है, ठीक उसी तरह राष्ट्रपति पद की साख को भी नुकसान पहुंचाया है। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का चयन हो या फिर वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का। नि:संदेह प्रणव मुखर्जी एक कद्दावर और साफ छवि के नेता हैं। देश के सर्वोच्च पद के दावेदार भी। उनकी लोक ताकत को देखते ही कांग्रेस सुप्रीमो ने उन्हें कभी प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। हालांकि उनका भी मैडम ने विपरीत परिस्थितियों में जमकर उपयोग किया। प्रणव बाबू भी अनजाने में ही सही गांधी-नेहरू वंश की गोद में खेलते रहे। युवराज के सिंहासनरूढ़ होने का रास्ता साफ हो सके इसके लिए एक सुनियोजित षड्यंत्र रचा गया। यूपीए-२ के सशक्त नेता को उपकृत करके पंगु करने का षड्यंत्र। प्रणव बाबू को देश का प्रथम नागरिक बनवा दिया गया। हांलाकि इसमें कांग्रेस सुप्रीमों के पसीने जरूर छूट गए। सरकार ने पैकेज नहीं बांटे होते तो सहयोगियों ने सुप्रीमो का खेल बिगाडऩे का पूरा इंतजाम कर रखा था। सुप्रीमो के लिए प्रणव बाबू को राष्ट्रपति भवन पहुंचाना जरूरी था इसलिए पैकेज के दम पर थोक में वोट खरीदे गए। नतीजा ६६वें स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रपति भी सरकार के मंत्रियों की बोली बोलते नजर आए। यानी राष्ट्रपति के भेष में यूपीए का एक मंत्री। राष्ट्रपति ने कहा कि जन आंदोलनों से लोकतंत्र को खतरा है। सब जानते हैं कि खतरा किसको है, लोकतंत्र को, कांग्रेसनीत यूपीए सरकार को, कांग्रेस को या फिर वंशवाद की राजनीति को। इतिहास तो गवाही देता है कि जन आंदोलनों ने लोकतंत्र को मजबूत किया है, कमजोर नहीं। जन आंदोलनों ही देश की आजादी की राह सुगम की थी। हाल ही में विश्व पटल पर अन्य देशों में भी जन आंदोलनों से लोकतंत्र की बहाली हुई है। फिर क्यों देश के राष्ट्रपति जनता का मनोबल गिरा रहे थे। दरअसल, प्रणव बाबू की आवाज में कांग्रेस की मनस्थिति थी। उनका यह भाषण कांग्रेस सुप्रीमो के प्रति धन्यवाद था। 
    भारत की वर्तमान सरकार की आस्था जनता में न होकर किसी विशेष परिवार में हैं। ये सरकार तानाशाह भी है। घोटाले दर घोटाले उजागर हो रहे हैं। महंगाई बढ़ रही है। विकास दर घट रही है। देश में कानून व्यवस्था नाम की चीज नहीं। देश में अलगाव की आग सुलग रही है। अवैध घुसपैठियों की भरमार हो गई है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के पक्षधर गृहयुद्ध जैसी स्थितियां बना रहे हैं। लेकिन, सरकार की चमड़ी की मोटाई और चिकनाहट बढ़ रही है। वह हर बार अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर आवाम की आंख में धूल झौंकने का काम कर रही है। जनता ने बड़ी उम्मीद से अपने नेता को संसद में चुनकर भेजा था। ताकि देश के सर्वोच्च सदन में नेता उनकी बात रख सकेगा। लेकिन, सब उम्मीदें ध्वस्त। वह तो दिल्ली में १० जनपथ की चाकरी करता दिख रहा है। कांग्रेस सुप्रीमों की अंगुलियों पर ता-ता थैय्या कर रहा है। जनता ने भी अब मन बना लिया है- २०१४ में देश कठपुतलियों को नहीं सौंपना।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

लोकजीवन के लिए 'समरसता के सूत्र'

 स मरसता के सूत्र पुस्तक की प्रस्तावना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक कुप्.सी. सुदर्शन ने लिखी है। इसके अलावा इस पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर दिए गए उनके भाषण को भी पुस्तक में शामिल किया गया है। श्री सुदर्शन लिखते हैं कि विश्व में हिन्दू चिंतन सबसे विशिष्ट और अनोखा है जो विश्व के अन्य किसी समाज के पास नहीं है। यह विश्व बंधुत्व की भावना का विकास करता है। इसमें चर-अचर सबके कल्याण की बात कही गई है। विदेशियों के हमले, समय के चक्र और कुरीतियों के बीच हिन्दू समाज में कुछ बुराइयां घर कर गईं। इनमें सर्वाधिक कष्ट इस बात का है कि जाति के आधार पर हिन्दू और हिन्दू के बीच भेदभाव एवं अस्पृश्यता घुसपैठ हो गई। समय के साथ यह बुराई विकराल हो गई। हिन्दू समाज को इन सब से मुक्त कर समरस, सजग, सचेत, सबल, समद्ध और स्वावलंबी समाज बनाने के कलए स्वामी विवेकानन्द, वीर सावरकर, ऋषि अरविन्द, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, श्री गुरुजी, शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले, गाडगे महाराज, तुकड़ोजी महाराज और डॉ. अंबेडकर जैसे महापुरुषों का बड़ा योगदान रहा। लेकिन, समाज अभी भी जितना बदलना चाहिए, उतना नहीं बदला है। प्रतिदिन हमें जातिभेद के आधार पर होने वाले अत्याचारों, अन्याय और विद्रूपताओं का परिचय मिलता है। इस समस्या के निर्मूल निवारण के लिए अभी और काम किया जाना शेष है। श्री सुदर्शन जी ने 'समरसता सूत्र' के संपादन के लिए तत्कालीन पाञ्चजन्य के संपादक (वर्तमान में राज्यसभा सांसद) तरुण विजय और मराठी साप्ताहिक विवेक के संपादक रमेश पतंगे के लिए साधुवाद दिया। उन्होंने प्रस्तावना में लिखा है कि 'समरसता सूत्र' हिन्दू समाज को समरसता के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकेगा, यह मुझे विश्वास है। पुस्तक में कुल ३५ आलेख हैं। इनमें श्री गुरुजी, दत्तोपंथ ठेंगड़ी, हो.वे. शेषाद्रि, महाशूद्र के साथ ही राजनाथ सिंह, गिरिलाल जैन, किशोर मकवाणा, प्रदीप कुमार, राजा माधव और रामनाथ सिंह के विचारों को स्थान दिया गया है। इसके अलाव पुस्तक में सत्येन्द्रनाथ दत्त, श्रीप्रकाश और रसिक बिहारी मंजुल की चार कविताओं को स्थान दिया गया।
    'समरसता के सूत्र' हिन्दू समाज में जाति भेदभाव और अस्पृश्यता के बीजारोपण से लेकर समस्या के विकराल बनने, समाज को हुए नुकसान और समस्या के निवारण के लिए हो रहे प्रयासों समझने का ग्रंथ है। पुस्तक के संपादक रमेश पतंगे अपने एक आलेख में समरसता शब्द के महत्व को स्पष्ट करते हैं। उन्होंने लिखा है कि कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो जनआकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हैं। १९४७ के पूर्व 'स्वतंत्रता या आजादी' एक ऐसा ही शब्द था जो सभी के अंत:करण के तार छेड़ देता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 'समाजवाद' यह शब्द आर्थिक, सामाजिक समता को अभिव्यक्त करने वाला था, इसलिए इसका चलन बहुत अधिक होता रहा। १९७० के दशक में 'समता' शब्द का भी प्रचुर मात्रा में उपयोग होने लगा। लेकिन, इन सबसे इतर 'समरसता' शब्द अति व्यापक अर्थ को व्यक्त करता है। सृष्टि के मनुष्य जीवन में एक ही चेतना होने के कारण मनुष्य-मनुष्य इस नाते से एकदूजे के समान हैं। भारतीय विचार परंपरा हमें यह सिखाती है कि सारी सृष्टि चेतन-अचेतन एक ही तत्व का आविष्कार है। इसीलिए परस्पर सामंजस्य और समरसता होना अत्यंत स्वाभाविक है। 'समरसता' शब्द नया नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन में पहली बार इसका उपयोग किया। श्री गुरुजी के 'सामाजिक विचार दर्शन' में अनेक बार इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है। वहीं, १९७० के दशक में 'समरसता' शब्द का प्रयोग वैचारिक क्षेत्र में एक सिद्धांत के रूप में शायद पहली बार किया गया। इसका श्रेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को देना चाहिए। रमेश पतंगे ने इसी आलेख में दत्तोपंथ ठेंगड़ी जी द्वारा स्थापित समरसता मंच के कार्यों का उल्लेख किया है। समसरता मच की स्थापना १९७३ को हुई, तब से मंच समाज में समरसता लाने के लिए सार्थक प्रयास कर रहा है। इसका असर भी हिन्दू समाज में अब दिखता है।
      इस पुस्तक के संपादक तरुण विजय अपने आलेख 'दलित दर्द-यह दर्द भारत का है' में मनुष्य-मनुष्य में भेद पर तीखा सवाल उठाते हैं। वे लिखते हैं कि हम राम और कृष्ण की उपासना करते हैं और कहते हैं कण-कण में राम हैं। हम पत्थर को भी ईश्वर बनाकर चंदन लगाते हैं, उस पर माला चढ़ाते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। हम पत्थर को तो भगवान बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन जीते जागते प्राणवान मनुष्य में प्रत्यक्ष ईश्वर बसता है, उस पर अपने घर में आने तक रोक लगाते हैं। हम होली दीवाली मनाते हैं पर तीज-त्योहार पर न तो इन वंचितों के घर जाते हैं और न ही इन्हें अपने घर बुलाते हैं। वे लिखते हैं सामाजिक भेदभाव की खाई पाटने और समाज में समरसता लाने सार्थक प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके स्वयंसेवकों में द्वारा किए जा रहे हैं। संघ में न तो किसी की जाति पूछी जाती है और न ही जाति का भेदभाव चलता है।
      पुस्तक में तमाम विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि समाज में समरसता लाने के लिए कोई सही दिशा में काम कर रहा है तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। यह सच भी है। संघ के निर्माताओं का ध्येय भी यही रहा हिन्दू समाज का संगठन। संगठन भेदभाव की खाई पाटे बिना नहीं हो सकता इसलिए संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने कहा भी कि हिन्दवो सोदरा सर्वे न हिन्दू पतितो भवेत, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता। श्री गुरुजी के प्रयासों से ही प्रयाग के कुंभ में संत-महात्माओं ने धर्म संसद में सभी हिन्दू समान है इस आशय की घोषणा की। संघ के प्रयासों से ही बेंगलूरु में स्वामी विश्वेश्वरा तीर्थ अनुसूचित जाति की बस्ती में गए , सहभोज किया। सन् १९८९ में अनुसूचित जाति के व्यक्ति कामेश्वर चौपाल ने रामजन्मभूमि की पहली शिला रखी। काशी में संतों ने डोमराजा के घर पहुंचकर प्रसाद ग्रहण किया। संघ के कार्य को स्पष्ट करते हुए श्री गुरुजी लिखते हैं कि हम तो समाज को ही भगवान मानते हैं, दूसरा हम जानते नहीं। समष्टिरूप भगवान की सेवा करेंगे। उसका कोई अंग अछूत नहीं, कोई हेय नहीं है। उसका एक-एक अंग पवित्र है, यह हमारी धारणा है। हम इस धारणा के आधार पर समाज बनाएंगे। भारत में जातीय भेदभाव पुरातन काल से नहीं है। पूर्व काल में तो समाज के सभी बंधुओं को समान अधिकार-समान सम्मान प्राप्त था। पंचायत व्यवस्था में हर तबके का प्रतिनिधि शामिल रहता था। प्रभु रामचंद्र की राज्य व्यवस्था का भी जो वर्णन है, उसमें चार वर्णों के चार प्रतिनिधि और पांचवां निषाद यानी वनवासी बंधुओं का प्रतिनिधि पंचायत में शामिल रहता था। परन्तु बीच कालखण्ड में वह व्यवस्था टूट गई।
      इस पुस्तक के एक आलेख में दत्तोपंत ठेंगडी लिखते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अपने सात वर्ष के कार्यकाल में ही १९३२ के नागपुर के विजयादशमी महोत्सव में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने घोषित किया था कि संघ क्षेत्र में जातिभेद और अस्पृश्यता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। इस घोषणा की सत्यता की प्रतीति सन् १९३४ के वर्धा जिले के संघ शिविर में महात्मा गांधी को भी हुई थी। हो.वे. शेषाद्रि लिखते हैं कि हिन्दू समाज में समरसता के लिए काम करने वाले दो महापुरुषों का योगदान उल्लेखनीय है - डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार। डॉ. हेडगेवार ने तो संघ की स्थापना के साथ ही मौन रूप से इस दिशा में कार्य प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने अंबेडकर जी के प्रयासों की सराहना भी की। १९२४ में मुम्बई में आयोजित बहिष्कृत हितकारिणी सभा में डॉ. अंबेडकर ने भी कहा था कि अस्पृश्यों का उद्धार केवल अस्पृश्यों के बलबूते पर ही नहीं होगा, अपितु पूरे समाज को साथ लेकर आगे बढऩे से होगा। डॉ. अंबेडकर जब पुणे के संघ शिविर में आए थे तो उन्होंने पया कि यहां तो अस्पृश्यता नाम की चीज ही नहीं है। सभी लोग वहां पर समान थे। उच्च जाति, निचली जाति, ब्राह्मण आदि के साथ उन्होंने समान व्यवहार देखा।
      कई बार एक मिथ्या धारणा बड़े जोर-शोर से चिल्लाकर प्रचारित की जाती है कि संघ में तथाकथित उच्चवर्ग के लोगों की बाहुलता है। पूछा जाता है कि आखिरकार जिनको हरिजन या दलित अथवा अस्पृश्य जाति से संबंधित कहा जाता है, उनके बीच में संघ की सक्रियता कहां तक है और वे संघ कार्य की मुख्यधारा में कहां दिखाई देते हैं? तो जिसे हम मुख्यधारा कहते हैं उसका अर्थ हिन्दू एकता ही है। कार्यकर्ता किस जाति के हैं और किस घर में पैदा हुए हैं- यह जानना मुख्यधारा नहीं होती। संघ में यह नहीं देखा जाता कि कार्यकर्ता किस जाति का है। सभी का व्यवहार, मानसिकता समरसता की है। स्वयं गांधी जी भी जब संघ शिविर में आए थे तो उन्होंने यही पया था। द टाइम्स ऑफ इण्डिया के पूर्व संपादक गिरिलाल जैन और अमृतलाल नागर के उपन्यास की भूमिका के अंश स्पष्ट करते हैं कि किस तरह भारत में जाति का भूत खड़ा हुआ। जिन लोगों को आज अस्पृश्य, अछूत माना जा रहा है उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए कितने कष्ट सहे हैं। एक और झूठ प्रचारित किया जाता है कि हिन्दू धर्म में तथाकथित शूद्रों को वेद अध्ययन या पूजा-पाठ का अधिकार नहीं दिया गया। इस झूठ से पर्दा उठाते हुए राजा जाधव लिखते हैं कि याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि शूद्रों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। शम-दम-सत्य का पालन और धर्माचरण करने वाला शूद्र भी ब्राह्मण कहलाता है ऐसा वेदव्यास ने महाभारत में कहा है। पराशर, वशिष्ठ, व्यास, कणाद, मंदपाल, मांडव्य आदि सारे ऋषि शूद्र ही थे। धीवर, चांडाल, गणिका, आदि कनिष्ठ जातियों की संतान भी उस काल में गुरुकुल में पढ़ती थीं। ऐतरेय महिदास शुद्रपुत्र ही था। वह वेदवेत्ता बन गया। ऐतरेय ब्राह्मण यह ग्रंथ उसी ने रचा है।
     राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई अनुषांगिक संगठन समाज में समरसता लाने के लिए जुटे हैं। विश्व हिन्दु परिषद और सेवा भारती उन्हीं में से हैं। सेवा भारती के माध्यम से आज देशभर में तमाम निचली जाति की बस्तियों के सेवा कार्य और शिक्षा के प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। गुजरात की मासिक पत्रिका नमस्कार के संपादक किशोर मकवाणा लिखते हैं कि विगत दस वर्षों से संघ कार्य को निकट से देखकर, शाखाओं में घुल-मिलकर स्वयंसेवकों के व्यवहार को देखकर, आज यह सब पढऩे को मिलता है कि - संघ दलित विरोधी है। तब ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने गाल पर चांटा मार दिया हो और मन में भयंकर वेदना उठती है। कितना सफेद झूठ। समाज के तथाकथित दलितोद्धार के ठेकेदारों ने वर्षों से दलित समाज में जो विष भरा है, उसे निकालना काफी कठिन कार्य है। इस दिशा में संघ की शक्ति और कार्य अभी भी बढऩा चाहिए। जितेन्द्र तिवारी अपने आलेख 'कले थे अछूत आज बने पण्डित' में बताते हैं कि किस प्रकार संघ प्रेरणा से समाज में बदलाव आए। जिन्हें अछूत माना जाता था वे पढ़-लिखकर पूजा-पाठ कार्य भी संपन्न करा पा रहे हैं।
     समरसता के सूत्र समाज को एकजुट करने और हिन्दू-हिन्दू में भेदाभेद को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से किए जा रहे कार्यों का ग्रंथ तो है ही यह समाज में अन्य महानुभावों द्वारा इस दिशा में किए गए और किए जा रहे कार्यों की जानकारी भी देती है। अंत में एक बात कहना चाहूंगा जो पुस्तक का ध्येय भी है- देश और समाज के विकास के लिए समरसता जरूरी है। इसलिए हिन्दू-हिन्दू के बीच का भेद खत्म करने के लिए सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए।
पुस्तक : समरसता के सूत्र
मूल्य : ३५० रुपए (सजिल्द)
संपादक : रमेश पतंगे, तरुण विजय
प्रकाशक : मचान,
सी-३७५, सेक्टर-१०, नोएडा (उत्तरप्रदेश) - २०१३०१

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

मीडिया चौपाल : सोशल मीडिया की 'अगस्त क्रांति'

मीडिया चौपाल-२०१२ में उपस्थित सोशल मीडिया के सिपाही.
सोशल मीडिया भी मुख्यधारा का मीडिया
 अ गस्त क्रांति का बिगुल सन् १९४२ में भारत से अंग्रेजों को भगाने के लिए फूंका गया था। यूं तो इसे 'भारत छोड़ो आंदोलन' के नाम से अधिक जाना जाता है। युवाओं को आकर्षित करने के लिए संभवत: इसे अगस्त क्रांति का नाम दिया गया। ८ अगस्त, १९४२ को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान से अगस्त क्रांति का उद्घोष किया गया। इस क्रांति ने ब्रिटिश शासन की चूलें हिला दी थीं। फलत: १९४७ में अंग्रेजों को बोरिया बिस्तर समेटकर भारत से जाना पड़ा। आखिरकार भारत ने लंबे संघर्ष, छोटी-बड़ी क्रांति, आंदोलन और प्रतिरोध के बाद आजादी हासिल कर ली। लेकिन, आजादी के बाद देश सही दिशा में आगे नहीं बढ़ सका। देश के कर्णधार विकास का देशज मॉडल विकसित नहीं कर सके। पहली सरकार के कार्यकाल से ही घोटाले की परिपाटी शुरू हो गई। नतीजतन आज भी देश के हालात अंग्रेज जमाने के भारत से बेहतर नहीं है। भ्रष्टाचार, नौकरशाही, राजनीति में वंशवाद-तानाशाही, पेड न्यूज जर्नलिज्म जैसी तमाम बीमारियों की गिरफ्त में देश है। देश का कोई कोना, कोई विभाग और दफ्तर भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा। इस सबकी आंच पर भीतर ही भीतर देश उबल रहा था, उबल रहा है। नतीजा एक और अगस्त क्रांति। अगस्त २०११ में अन्ना हजारे के नेतृत्व में दिल्ली में भारत उमड़ आया। भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल के लिए अगस्त क्रांति का नारा बुलंद हुआ। अन्ना हजारे के आंदोलन के पहले से कालेधन के मुद्दे पर गांव-गांव में अलख जगा रहे बाबा रामदेव ने एक बार फिर अगस्त २०१२ में दिल्ली के रामलीला मैदान में जनशक्ति का प्रदर्शन किया। इन अगस्त क्रांति से तात्कालिक और प्रत्यक्ष परिवर्तन भले ही न आए हो लेकिन आने वाले समय में असर जरूर दिखेगा। क्रांति से सुलगी आग बड़ी देर में शांत होती है। बहरहाल, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के नेतृत्व में हुए आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका अहम मानी जा रही है। भारत के आमजन की तरह सोशल मीडिया भी तमाम परेशानियों और चुनौतियों से जूझ रहा है। इन सब पर चिंतन के साथ ही विज्ञान के साथ विकास की बात करने के लिए भोपाल में १२ अगस्त को सोशल मीडिया संचारकों का जमावड़ा हुआ। आयोजन मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद और स्पंदन संस्था की ओर से था। दिनभर की दिमागी कसरत के बाद देर शाम को भोपाल उद्घोषणा के नाम से सोशल मीडिया की नीतियों और उद्देश्यों की घोषणा हुई। सर्वसम्मति से तैयार की गई नीतियों और उद्देश्यों को मीडिया चौपाल के सह आयोजक स्पंदन संस्था के सचिव अनिल सौमित्र ने सबके सामने रखा। अनिल सौमित्र के बुलावे पर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में देशभर से करीब डेढ़ सौ सोशल मीडिया संचारक पहुंचे। चर्चा के दौरान विचारों के आदान-प्रदान से स्पष्ट हो गया कि सब सिस्टम से लडऩे के मूडी हैं। सब युवा थे, जोश-उत्साह से लबरेज और अध्ययनशील भी। सोशल मीडिया को पॉपकोर्न मीडिया, न्यू मीडिया और टाइमपास मीडिया कहने वालों का उन्होंने तीखा विरोध किया। युवाओं ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि अब से सोशल मीडिया को भी मुख्यधारा का मीडिया माना जाए। सोशल मीडिया को भी समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझकर काम करना होगा। भाषा-तथ्य की शुद्धता और स्वनियंत्रण के लिए आचार संहिता के पालन पर विशेष ध्यान देना होगा। लड़ाई लम्बी चलनी है इसलिए सोशल मीडिया फोरम बनाने का निर्णय मीडिया चौपाल में हुआ। युवा वेब पत्रकारों के जज्बे को देखकर सोशल मीडिया संचारकों के इस जमावड़े को 'सोशल मीडिया की अगस्त क्रांति' कहा जा सकता है।
    बाजारवाद के प्रभाव में जब समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने आमजन को जगह देना कम कर दिया तब सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा मंच बनकर सामने आया है। कुछेक समाचार पत्रों को छोड़ दिया जाए तो अब समाचार पत्रों में पाठकों के पत्रों के लिए भी जगह नहीं बची है, विचारों के लिए तो कतई जगह नहीं। ऐसी स्थिति में सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। चर्चित और अधिक सर्च की जाने वाली वेबसाइट पर भी हर कोई अपनी बात कहने में सक्षम है। ब्लॉग, फेसबुक, ऑरकुट और ट्विीटर भी अभिव्यक्ति का मंच बन गए हैं। कई मुद्दे तो सोशल मीडिया के कारण ही चर्चा में आए। मीडिया चौपाल में इस बात पर तीखी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की गईं कि कथित मुख्यधारा का मीडिया सोशल मीडिया से खबरें, लेख व अन्य सामग्री कॉपी कर अपने पन्ने भर रहा है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया के उस सिपाही को आभार भी व्यक्त नहीं कर रहा जिसकी सामग्री उसने उपयोग की। कई बार सोशल मीडिया प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरों के पीछे की कहानी को भी उजागर कर देती है। इसी स्थिति को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह प्रचार प्रमुख राममाधव ने कहा कि सोशल मीडिया ने सही मायनों में पत्रकारिता को लोकतांत्रिक कर दिया है। अब सच छुपाए से भी नहीं छुप सकता। सूचनाओं पर किसी का एकाधिकार नहीं। सोशल मीडिया को और अधिक सशक्त करने की जरूरत है। हालांकि उन्होंने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के महत्व को भी रेखांकित किया। वहीं वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश ने सोशल मीडिया के उजले और स्याह पक्षों को सबके सामने रखा। सोशल मीडिया के बेहतर भविष्य के लिए उन्होंने कुछ सुझाव भी दिए। इनमें भाषा और तथ्य की मर्यादा बनाए रखने की बात कही। सोशल मीडिया पर एक सरसरी नजर दौड़ाएं तो केजी सुरेश की चिंता जायज है। कई बार ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया भी भटकाव के पथ पर न बढ़ जाए। बेहद फूहड़ फोटोग्राफ्स, टिप्पणियां, लेख और समाचार वर्चुअल वल्र्ड में तैरते दिखते हैं। कंटेंट की गेटकीपिंग के अभाव में गाली-गलौज तक की भाषा धड़ल्ले से लिखी जा रही है। गलत बात का विरोध करने के लिए अपने शब्दों की धार तीखी रखो लेकिन पवित्रता के साथ। शब्द ब्रह्म होता है। इसलिए सोशल मीडिया से जुड़े पत्रकारों को एक आचार संहिता बनानी होगी और पालन भी करना होगा। तभी सोशल मीडिया की ताकत बढ़ेगी। सच की ताकत बढ़ेगी। बात का असर होगा। तभी व्यवस्था में भी परिवर्तन होगा। वेब पत्रकारों के इरादों को मजबूत करते हुए श्री सुरेश ने स्वामी विवेकानंद का प्रसंग सुनाया। किसी भी अच्छे काम का पहले तो समाज या कहें कि उस क्षेत्र के जमे-जमाए लोग उपहास उड़ाते हैं। हम अपना काम तब भी जारी रखे रहे तो जमकर विरोध और आलोचना होती है। इन दोनों सीढिय़ों के पार विजय हमारे स्वागत में पुष्पहार लेकर खड़ी होती है। यानी समाज हमें स्वीकार कर लेता है। ओल्ड मीडिया और न्यू मीडिया के द्वंद्व को मीडिया चौपाल में पहुंचे 'सामना' (हिन्दी) मुंबई के संपादक प्रेम शुक्ल ने खत्म कर दिया। उन्होंने साफ किया कि ओल्ड मीडिया और न्यू मीडिया जैसी कोई चीज नहीं है। समय के साथ सब ही अपनी अपडेट अवस्था में हैं। दोनों प्रतिद्वंद्वी की भूमिका में रहे तो समाज का भला होने से रहा। दोनों को मिलकर काम करना होगा। बात सही भी है वर्चस्व की लड़ाई का परिणाम हमेशा गड़बड़ ही रहता है। इस बात पर मंथन के बाद तय हुआ कि सोशल मीडिया को अपनी जिम्मेदारी तय करनी होगी। इस बात को कमल संदेश पत्रिका के संपादक, राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि बिना लक्ष्य के कोई भी कार्य फलीभूत नहीं होता। अधिकांश लोग फिलहाल इंटरनेट पर निरुद्देश्य लिख रहे हैं। पहले तय किया जाए कि ब्लॉग किसलिए लिखना है, फेसबुक पर लगातार क्या और क्यों अपडेट करना है और वेबपोर्टल क्यों चलाना है? जब तक गोल स्पष्ट नहीं होगा तब तक कुछ भी संभव नहीं है। सांसद प्रभात झा ने सोशल मीडिया का समर्थन किया और वर्तमान की जरूरत बताया।
    मीडिया चौपाल की महत्वपूर्ण घोषणा है - वेब पत्रकारों के हितों की लड़ाई के लिए मीडिया फोरम का गठन करना। ताकि सत्ता के नशे में चूर राजनेता या अन्य लॉबी वेब पत्रकारों का दमन नहीं कर सके। मीडिया चौपाल से भड़ास फॉर मीडिया के संपादक यशवंत सिंह और समाचार संपादक अनिल सिंह के खिलाफ की गई पुलिस कार्रवाई का विरोध किया गया। सोशल मीडिया के सफल संचालन के लिए अर्थ की व्यवस्था के लिए भी एक आर्थिक मॉडल विकसित करने की बात रखी गई। कॉपीराइट और वेबपोर्टल के पंजीयन की बात भी आई। साथ ही वेब पत्रकारों को भी अधिमान्यता देने की मांग की गई। सोशल मीडिया पर तेजी से फैल रही अश्लीलता और भाषाई गंदगी को रोकने के लिए सभी ने एकमत से आचार संहिता बनाने की राय जाहिर की। सोशल मीडिया फोरम से जुड़े वेब संचारकों को इस आचार संहिता का पालन करना अनिवार्य होगा। आचार संहिता का उल्लंघन करने की स्थिति में उक्त वेब संचारक को फोरम से निकाल दिया जाएगा। उम्मीद जताई गई कि ऐसी स्थिति में भाषाई मर्यादा और तथ्यों की पवित्रता बनाई रखी जा सकती है। इंटरनेट की ताकत को राष्ट्र विरोधी ताकतों ने भी तौल लिया है। देश और समाज को तोडऩे, नागरिकों के बीच वैमनस्यता बढ़ाने और विदेशी ताकतों को मदद पहुंचाने के लिए कई राष्ट्रविरोधी व्यक्ति व संस्थाएं काम कर रही हैं। इनसे निपटने की भी रणनीति बनाने की बात चौपाल में रखी गई। एक सर्वे के मुताबिक भारत में करीब १२ करोड़ इंटरनेट यूजर हैं। यह संख्या भारत की एक प्रतिशत आबादी से भी कम है। लेकिन, यह वर्ग प्रभावी है। यही नहीं उत्तरोत्तर इंटरनेट यूजर की संख्या बढऩी है। तकनीकि का जमाना है, हर कोई अपडेट रहना चाहता है। शिक्षा और तकनीक के प्रसार के साथ सोशल मीडिया का दायरा भी बढ़ रहा है। इसलिए इंटरनेट पर प्रसारित संदेश, चर्चा और मुद्दों को समाज के बीच ले जाने में और माहौल बनाने में ये १२ करोड़ लोग सक्षम हैं। उक्त मुद्दे और प्रस्ताव क्रांति की मशाल के ईंधन की तरह हैं। इसलिए कहता हूं भोपाल में आयोजित मीडिया चौपाल में सच की लड़ाई लडऩे के लिए सोशल मीडिया की अगस्त क्रांति का सूत्रपात हो चुका है। यह लड़ाई कहां तक जाएगी यह देखना शेष है।